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सर्वदर्शनसंग्रहे
के लिङ्गों से बढ़कर रसरूपी लिंग की अर्चना से शिव ( देवता या कल्याण) की प्राप्ति होती है, क्योंकि वह लिंग भोग, आरोग्य और अमरता प्रदान करतेवाला है।' रसनिन्दायाः प्रत्यवायोऽपि वशितः३०. प्रमादाद्रसनिन्दायाः श्रुतावेनं स्मरेत्सुधीः।
द्राक्त्यजेन्निन्दकं नित्यं निन्दया पूरिताशुभम् ॥ इति । [पारद-] रस की निन्दा करने का कुपरिणाम दिखलाया गया है-'विद्वान यदि प्रमादवश रस को निन्दा कर दे तो अपने मन में [ उसके परिहार के लिए ] इस ( पारद ) का स्मरण कर ले। निन्दक को सदा के लिए तुरत छोड़ दे, क्योंकि वह अपनी निन्दा के चलते पापपूर्ण है।'
(१४. पुरुषार्थ और ब्रह्म-पद ) तस्मादस्मदुक्तया रीत्या दिव्यं देहं संपाद्य योगाभ्यासवशात्परतत्त्वे दृष्टे पुरुषार्थप्राप्तिर्भवति । तदा-- ३१. भ्रयुगमध्यगतं यच्छिखिविद्युत्सूर्यवज्जगद्भासि ।
केषांचित्पुण्यदृशामुन्मीलति चिन्मयं ज्योतिः॥ ३२. परमानन्दैकरसं परमं ज्योतिःस्वभावमविकल्पम् ।
विगलितसकलक्लेशं ज्ञेयं शान्तं स्वसंवेद्यम् ॥ ३३. तस्मिन्नाधाय मनः स्फुरदखिलं चिन्मयं जगत्पश्यन् । उत्सन्नकर्मबन्धो ब्रह्मत्वमिहैव चाप्नोति ॥
(र० हृ० १।२१।-२३) इस प्रकार हमारे सम्प्रदाय में कही गई विधि से दिव्य-शरीर बनाकर, योग ( ब्रह्म के साथ एकता की स्थापना ) के अभ्यास के द्वारा परमतत्त्व देख लेने पर पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है । तब–'दोनों भौंहों के बीच में स्थित रहनेवाली तथा जो अग्नि, विद्युत् तथा सूर्य की तरह संसार को प्रकाशित करती है वह चित् ( चेतनता ) के स्वरूप में वर्तमान ज्योति किन्हीं-किन्हीं ही पुण्य (पवित्र ) दृष्टिवाले ( व्यक्तियों) के समक्ष खुलती ( प्रकाशित होती ) है ( ३१ )। परम आनन्द की प्राप्ति करानेवाला, एक ( अद्वैत ) रस से परिपूर्ण परमतत्त्व के रूप में, ज्योति हो जिसका स्वरूप है, जिसमें किसी विकल्प ( पक्षान्तर ) का स्थान नहीं, जिससे सभी क्लेश ( कष्ट ) निकल जाते हैं, जो ज्ञान का विषय है, शान्त है, अपने में ही अनुभव की वस्तु है ( ३२ )-उसमें अपने मन को लगा१. तुलनीय-पारदं परमेशानि ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । यो यजेत्पारदं लिङ्गं स एष शम्भुरव्ययः ।।
( अभ्यंकरटीका में उद्धृत)।