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सर्वदर्शनसंग्रहेयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः' ( पात० यो० सू० २१५४ ) इति । सादृश्यं च चित्तानुकारनिमित्तं विषयासम्प्रयोगः । ____ अब एक शंका होती है कि उस दशा में तो [ निर्विकार आत्मा के स्वरूप में ] चित्त ही प्रवेश करता है, इन्द्रियाँ नहीं, क्योंकि इन्द्रियों का विषय बाह्य-जगत् से सम्बद्ध है, अतः आत्मा में उनकी सामर्थ्य ( शक्ति, अधिकार ) नहीं हो सकती। फिर वे चित्त को प्रकृति में अपने को कैसे मिला सकेंगी? ठीक कहते हैं। इसीलिए तो वास्तव में उसकी असम्भावना की सम्भावना करके सूत्रकार ने सादृश्यार्थक 'इव' शब्द का प्रयोग किया है [ जिससे यह प्रकट होता है कि इन्द्रियाँ चित्त की प्रकृति में अपने को मिला नहीं लेती प्रत्युत चित्त में मिलाने पर जैसी दशा हो सकती है, वैसी बन जाती हैं ] -'इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ सम्बन्ध न होने पर चित्त के रूप का अनुकरण-जैसा करना प्रत्याहार है' ( यो० सू० २।५४ )। [ जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को नहीं जीत सका है, बद्ध है, उसकी इन्द्रियाँ भी विषयोपभोग के समय चित्त का अनुकरण करती हैं-उसमें अतिव्याप्ति रोकने के लिए 'स्वविषयासम्प्रयोगे' का प्रयोग किया गया है। ]
[ जब दो वस्तुओं में तुलना होती है तब किसी धर्म के आधार पर ही । अतः यहाँ भी कुछ सादृश्य-धर्म होना चाहिए । अपने विषयों से सम्बन्ध न होना ही यहाँ पर सादृश्य-धर्म है। उसके कारण चित्त का ( अनुकरण उसकी प्रकृति में अपने को मिलाना ) होता है।
यदा चित्तं निरुध्यते तदा चक्षुरादीनां निरोधे प्रयत्नान्तरं नापेक्षणीयम् । यथा मधुकरराजं मधुमक्षिका अनुवर्तन्ते तथेन्द्रियाणि चित्तमिति । तदुक्तं विष्णुपुराणे५८. शब्दादिष्वनुरक्तानि निगृह्याक्षाणि योगवित् ।
कुर्याच्चित्तानुकारीणि प्रत्याहारपरायणः॥ ५९. वश्यता परमा तेन जायते तिचलात्मनाम् । इन्द्रियाणामवश्यस्तैर्न योगी योगसाधकः ।।
(वि० पु० ६।७।४३-४४ ) इति । जब चित्त ( मूल ) ही निरुद्ध हो जाता है तब चक्षु आदि इन्द्रियों के निरोध के लिए अलग से प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जैसे मधुकर-पति के पीछे-पीछे मधुमक्खियां चलती हैं उसी तरह चित्त के पीछे-पीछे इन्द्रियां चलती हैं। इसे विष्णुपुराण में कहा है-'योगी शब्दादि विषयों में अनुरक्त इन्द्रियों ( अक्ष = इन्द्रिय ) का निग्रह करके, प्रत्याहार में निरत होकर, उन्हें चित्त की अनुकारी (चित्त के स्वभाव में अपने को मिला देनेवाली ) बना दें ॥ ५८ ।।।
अत्यन्त चंचल स्वरूपवाली इन्द्रियों का भी इसके बाद परम वशीकरण हो जाता है । [ तुलनीय–'ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्' ( यो० सू० २।५५ ) । ] यदि ये इन्द्रियां वश