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पाणिनि-
वनम्
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[ ऊपर जाति को पदार्थ माननेवालों का विचार दिया गया है कि जाति सत्ता से भिन्न नहीं है, इसलिए परमार्थ-ज्ञान के रूप में सत्ता ही सभी शब्दों का अर्थ है। अब व्यक्ति अर्थात् द्रव्य को पदार्थ माननेवाले लोगों के मत से भी अर्थ वही है, यह कहते हैं-] द्रव्य ( = घटादि व्यक्ति ) को पदार्थ माननेवालों के सिद्धान्त के अनुसार भी सभी शब्दों का अर्थ वह तत्त्व ( सत्ता नामक) ही है जो संवित् अर्थात् निर्विकल्पक ज्ञान से लक्षित होता है । [ घटादि पदार्थों के व्यक्ति ( Individual ) रूप को द्रव्य कहते हैं । बुद्ध के व्यवहार से जब शक्तिग्रह होता है तब 'गाय लाओ, घोड़े बांध दो' आदि वाक्यों के द्वारा, विभिन्न क्रियाओं के विषय के रूप में आनेवाले व्यक्ति-रूपों के ही दर्शन होते हैं, जाति के नहीं। अतः इन लोगों के अनुसार जाति से विशिष्ट व्यक्ति (द्रव्य) ही शब्द का अर्थ है।]
उक्त तथ्य का समर्थन भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के सम्बन्धसमुदेश ( ३।२।२ ) में किया है-'जिस प्रकार सत्य वस्तु का निश्चय उसी के आकार से युक्त असत्य वस्तुओं के द्वारा किया जाता है, उसी प्रकार असत्य ( द्रव्यात्मक ) उपाधियों के द्वारा शब्द भी सत्य का ही निर्देश करते हैं।' [ जैसे किसी व्यक्ति ने वास्तविक सिंह नहीं देखा हो, उसे सिंह का आकार-प्रकार समझने के लिए सिंह का चित्र या मूर्ति दिखलाते हैं । यद्यपि चित्र या मूर्ति का सिंह सत्य नहीं, असत्य ही है, परन्तु उसी से सच्चे सिंह का निश्चय कर लेते हैं कि वह ऐसा ही होता है। उसी प्रकार ये द्रव्य केवल उपाधियां हैं, पदार्थ-बोध के सहायक हैं तथा असत्य हैं; किन्तु इन्हीं द्रव्यों के द्वारा शब्द अन्त में हमें सत्य तक–अर्थात् महासत्ता ही सब शब्दों का अर्थ है वहाँ तक-पहुंचा देता है । ] विशेष-भर्तृहरि ने ठीक ऐसी ही भावना इस श्लोक में भी की है
उपायाः शिक्ष्यमाणानां बालानामुपलालनाः ।
असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥ अर्थात् व्याकरणशास्त्र वास्तव में उपाय ( साधन ) है। जैसे सीखनेवाले बालकों के लिए उपलालन ( लाड़-प्यार ) का प्रयोग होता है, इस प्रकार असत्य मार्ग से होकर कुछ दिनों के बाद बालक सत्य मार्ग पर पहुंच जाता है। वह समझ लेता है कि उपलालन एक बहाना है, सत्य तो अध्ययन है । ( वाक्य० २१२४० )।
१६. अध्रवेण निमित्तेन देवदत्तगहं यथा ।
___ गृहीतं गहशब्देन शुद्धमेवाभिधीयते ॥ भाष्यकारेणापि 'सिद्धेशब्दार्थसम्बन्धे' इत्येतद्वातिकव्याख्यानावसरे द्रव्यं हि नित्यमित्यनेन ग्रन्थेनासत्योपाध्यवच्छिन्नं ब्रह्मतत्त्वं द्रव्यशब्दवाच्यं सर्वशब्दार्थ इति निरूपितम् ।
"अध्रुव या अस्थायी निमित्त के द्वारा 'यह देवदत्त का घर है' ऐसा ग्रहण होता है, परन्तु 'गृह' शब्द से शुद्ध-गृह का ही बोध होता है (निमित्तयुक्त गृह का नहीं )।"