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सर्वदर्शनसंग्रहे
[ ज्ञानमात्र का अभाव ] नहीं हो सकता । न वह नव् ज्ञान-विशेष अर्थात् अनुभव के अभाव को ही प्रकट करता है क्योंकि जब 'ज्ञान' (ज्ञा ) कहते हैं तो ज्ञान-विशेष का अर्थ प्रकट होता ही नहीं । [ किसी गाँव में कोई व्याकरणाचार्य न हो तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह गाँव अविद्वान् है, जब कि उस गाँव में बड़े-बड़े पण्डित हों । उसी प्रकार, यदि ज्ञान - विशेष न हो तो ज्ञान ही नहीं, ऐसा नहीं कहेंगे । ] उक्त वाक्य को निरर्थक भी नहीं कहा जा सकता [ क्योंकि उन्मत्त व्यक्ति का वाक्य है नहीं । ] इसीलिए अनुपपत्ति होने के कारण ( 'अहमज्ञः' यह ज्ञान किस प्रकार का है, यह निर्णय न हो सकने के कारण ) लक्षणावृत्ति से इसकी सिद्धि मानें ।
हमारा उत्तर है कि आप नञ् का अर्थ उपर्युक्त लक्षण से युक्त अविद्या ही क्यों नहीं मान लेते ? [ लक्षणा को स्वीकार करने के लिए आप चारों ओर से जो अनुपपत्ति का स्तूप खड़ा कर रहे हैं और कहते हैं कि इन ज्ञान का निरूपण करना असम्भव है - इसी अनिर्वचनीयता को तो अविद्या कहते हैं । इसे ही हम अभाव का अर्थ क्यों न मान लें ? अनुपपत्ति दिखाने के बाद लक्षणा मानने का कष्ट क्यों कर रहे हैं ? ]
[ नैयायिकादि फिर शंका करते हैं कि मान लिया, अनुपपत्ति ही अविद्या है जो अनिर्वचनीय है, भावरूप है आदि । पर नञ् का अर्थ भी वही है, यह कैसे सम्भव है ? अभाव भी तो नञ् का अर्थ हो सकता है ? इस प्रकार ] सन्देह बना ही रहता है । हमारा उत्तर है कि सन्देह इसलिए नहीं होगा क्योंकि दोनों कोटियाँ ( पक्ष ) बराबर नहीं हैं । [ न्याय-दर्शन में हम देख चुके हैं कि सन्देह दोनों पक्षों के समान होने पर ही होता हैकोई प्रबल और कोई दुर्बल हो गया तो सन्देह मिट जायगा । अब दिखायेंगे कि दोनों कोटियाँ केसे असमान हैं । ]
दूसरे स्थानों पर नव् प्रतियोगी की निवृत्ति के अर्थ में होता है [ जैसे 'अघटं भूतलम्' में अटके नत्र से प्रतियोगी ( घट ) की निवृत्ति समझी जाती है । ] किन्तु यहाँ पर ( 'अहमज्ञः' में ) इसका अर्थ है, प्रतियोगी ( ज्ञान ) के द्वारा व्याप्य ( अनुभव ) की निवृत्ति ( Negation ) । [ इस तरह आप लोगों को लक्षणा का आश्रय लेना पड़ता है तो अभाव का पक्ष तो दुर्बल हो ही गया । नव् का अर्थ यदि अविद्या - अनिर्वचनीयतामानेंगे तो यह कोटि प्रबल ही रहेगी। कार हम लक्षणा पक्ष और अविद्या - पक्ष की समता दिखा चुके हैं । अभी और भी कहेंगे । ]
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जानातिसमभिव्याहृतस्य नञः क्वचिदुक्तलक्षणाविद्याविषयत्वसिद्धिमन्तरेण न सन्देह इत्यवश्यम्भावेन सैव जानातिसमभिव्याहृतस्य नमः सर्वत्र तद्विषयत्वमवगमयति । विलुम्पति ज्ञानाभावको घन्तरमिति क्व सन्देहावकाशः ? तदेवं लक्षणाहेत्वभावेऽनुभवाभावोऽप्यात्मनि न प्रत्यक्षेण