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________________ ३६७ औलूक्य-दर्शनम् विशेष-इसमें अन्तर्भूत पदों पर विचार करने से यह मालूम होता है कि यदि लक्षण से "विनाशक' पद हटा दें तो जीव की बुद्धि में अतिव्याप्ति हो जायगी। कारण यह है कि जब हम कहते हैं 'यह घट है' तो इस बुद्धि का भी तृतीय क्षण में विनाश हो ही जाता है-यह बुद्धि भी विनाश की प्रतियोगिनी है, इसलिए 'यह घट है" इस ज्ञान को भी अपेक्षाबुद्धि कहने लगेंगे। इसलिए अतिव्याप्ति रोकने के लिए 'विनाशक' पद का प्रयोग हुआ है। वैसा करने से घट-ज्ञान का नाश होने पर किसी दूसरे का विनाश नहीं होता-इसलिए घटज्ञान का नाश किसी का विनाशक नहीं है। द्वित्व का नाश अपेक्षाबुद्धि के ही नाश से :सम्भव है। वैशेषिकों का यह मत दिखलाया गया है कि द्वित्व अपेक्षाबुद्धि से उत्पन्न होता है। नेयायिक भी इसी को स्वीकार करते हैं, किन्तु इसमें उनकी विशेष रुचि नहीं, विशेष पर वैशेषिक का ही आग्रह है। कुछ लोग जो यह शंका करते हैं कि वैशेषिकों का द्वित्व अपेक्षा से व्यक्त होता है, उत्पन्न नहीं-यह बिल्कुल निरर्थक है। भाषा-परिच्छेद (गुणखण्ड, १०९ ) में अपेक्षा-बुद्धि का लक्षण देते हुए विश्वनाथ कहते हैं-अनेककत्वबुद्धिर्या साऽपेक्षाबुद्धिरुच्यते-अर्थात् अपेक्षाबुद्धि उसे कहते हैं जो अनेकत्व में एकत्व का अवगाहन कराये । जैसे 'अयम् एकः, अयम् एकः' मुक्तावली में प्रस्तुत प्रसंग को इस रूप में व्यक्त किया गया है-'न चापेक्षाबुद्धिनाशात्कथं द्वित्वनाश इति वाच्यम् । कालान्तरे द्वित्वप्रत्यक्षाभावात् अपेक्षाबुद्धिस्तदुत्पादिका तन्नाशस्तन्नाशक इति कल्पनात् ।' पूर्वपक्षवाले शंका करते हैं कि अपेक्षाबुद्धि के विनाश के बाद द्वित्व का नाश कैसे होता है ? उत्तर यह है कि जब अपेक्षाबुद्धि नहीं रहती तब द्वित्व आदि धर्मों का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता, इसीलिए ऐसा निश्चय होता है कि अपेक्षाबुद्धि हो उन्हें उत्पन्न करती है और अपेक्षाबुद्धि के विनाश से उन द्वित्वादि धर्मों का भी विनाश हो जाता है। द्वित्वादि के कारण के रूप में अपेक्षाबुद्धि किस प्रकार की कब होती है, इस पर विचार करते हुए मुक्तावली में लिखा है कि द्वयणुकादि पदार्थों का ज्ञान इन्द्रियों से नहीं हो सकता। उनमें द्वित्व के ज्ञान के लिए योगियों की अपेक्षाबुद्धि काम देती है। सृष्टि के आदि-काल में जो परमाणु आदि हैं उनमें द्वित्व के कारण के रूप में या तो ईश्वर की अपेक्षाबुद्धि काम में आती है या दूसरे ब्रह्माण्ड (जिस ब्रह्माण्ड की सृष्टि हो रही है उससे किसी भिन्न ब्रह्माण्ड ) में विद्यमान योगियों की अपेक्षाबुद्धि काम देती है। ( मुक्तावली, वहीं)। ( १०. पाकज पदार्थ की उत्पत्ति ) अथ दूधणुकनाशमारभ्य कतिभिः क्षणः पुनरन्यद् द्वषणुकमुत्पद्य स्पादिमभवतीति जिज्ञासायामुत्पत्तिप्रकारः कथ्यते-नोवनाविकमेण
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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