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सर्वदर्शनसंग्रह
( ५ क. व्याकरण से अभ्युदय की प्राप्ति ) साधुशब्दप्रयोगवशादभ्युदयोऽपि भवति । तथा च कथितं कात्यायनेनशास्त्रपूर्वके प्रयोगेऽभ्युदयस्तत्तुल्यं वेदशब्देनेति । अन्यरप्युक्तम्-एकः शब्दः सम्यग् ज्ञातः सुष्ठु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुग्भवतीति । तथा__४. नाकमिष्टसुखं यान्ति सुयुक्तर्बद्धवानथः ।
अथ पत्काषिणो यान्ति ये चिक्कमितभाषिणः ॥ इसके अतिरिक्त शुद्ध शब्दों के प्रयोग के कारण अभ्युदय की प्राप्ति भी होती है । जैसा कि कात्यायन ने कहा है-'[ व्याकरण ] शास्त्र का ज्ञान पाकर जो प्रयोग किया जाय उससे अभ्युदय प्राप्त होता है, क्योंकि यह शास्त्र 'वेद' ( जानता है ) शब्द के समान हो ही है । [ एक ब्राह्मण वाक्य है-'योश्वमेधेन यजते य उ चेनमेवं वेद' अर्थात् जो व्यक्ति अश्वमेध के द्वारा अग्निष्टोम-याग करता है या उसकी विधि को जानता है उसे फल मिलता है (ते. ब्रा० ३।११७) । यहाँ 'वेद' शब्द की ध्वनि है कि ज्ञानपूर्वक जो याग करता है उसे ही फल मिलता है। उसी तरह व्याकरण जानकर जो शब्दों का प्रयोग करता है उसे अभ्युदय मिलता है । 'वेद' ( जानता है ) का जो महत्त्व अग्निष्टोम के लिए है, वही व्याकरण-ज्ञान का शब्द प्रयोग के लिए भी है । ]
दूसरे लोगों ने भी कहा है-'एक ही शब्द यदि अच्छी तरह (प्रकृति-प्रत्यय का विभाग करके ) जान लिया गया और अच्छी तरह से उसका प्रयोग भी किया गया तो वह स्वर्ग में और इस लोक में भी कामनाओं की पूर्ति करता है ( यथेष्ट फल देता है)।' उसी प्रकार–सुसज्जित और बंधी हुई ( शुद्ध ) वाणीरूपी रथ के द्वारा लोग अभीष्ट सुख देनेवाले स्वर्गलोक में जाते हैं; किन्तु जो व्यक्ति 'चिक्क' शब्द के समान ( अपशब्द ) बोलने वाले हैं वे पैरों से राह को पीटते हुए ( = पैदल) ही जाते हैं।'
विशेष-यह श्लोक काशिका में ३३१४४८ की व्याख्या में दिया गया है किन्तु वहाँ कुछ पाठान्तर है. नाकमिष्टसुखं यान्ति सुयुक्तैर्वडवारथैः ।
अथ पत्काषिणो यान्ति येऽचीकमतभाषिणः ।। किन्तु काशिका की दोनों ही व्याख्याओं–पदमञ्जरी और न्यास-में इस श्लोक की व्याख्या का अभाव देखकर इसकी मौलिकता पर संदेह होता है । कुछ भी हो, इसके द्वारा सुन्दर शब्दों के शुद्ध प्रयोग पर बल दिया जाता है। ___ नवचेतनस्य शब्दस्य कथमीदृशं सामर्थ्यमुपपद्यत इति चेत्-मैवं मन्येथाः। महता देवेन साम्यश्रवणात् । तदाह श्रुतिः५. चत्वारि शृङ्गा त्रयों अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मा आ विवेश ॥
(ऋ० सं० ४।५८३३) इति ।