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पाणिनि-दर्शनम् नहीं हैं, जैसे-देवासः ( देवाः ), देवेभिः ( देवः ), त्मना ( आत्मना )। इन अलौकिक रूपों को देखकर व्याकरण न जाननेवाला व्यक्ति भ्रम से इनका संशोधन कर दे सकता है जिससे वेद की आनुपूर्वी (शब्दक्रम ) के भंग होने का भय है। व्याकरण जाननेवाला व्यक्ति सम्बद्ध सूत्रों से उनकी सिद्धि देखकर वेद के क्रम की रक्षा कर सकता है।
(२) ऊह-( Inference )-ऊह का अर्थ है वेदिक शब्दों का देवता, लिंग, वचनादि के अनुसार परिवर्तन कर देना। एक मन्त्र है-'अग्नये जुष्टम्' (ते० सं० १२११४) । अब यदि सूर्य देवता को हवि दान करना हो तो 'सूर्याय जुष्टम्' कहेंगे। वेद में पाठ है-'अन्वेनं माता मन्यताम्'। इसका प्रयोग एक पशु के लिए होता है । जब पशुओं को संख्या बढ़ेगी तो एनौ, एनान रूप करने पड़ेंगे। अतः परिस्थिति के अनुसार वचन का परिवर्तन करना है। पतंजलि कहते हैं कि वेद में मन्त्र सभी लिगों और सभी विभक्तियों में नहीं पढ़े गये हैं। यज्ञ की आवश्यकता के अनुसार उनके लिंगों और विभक्तियों में परिवर्तन करना पड़ता है। यह काम बिना व्याकरण जाने नहीं हो सकता।
(३) आगम-(Scripture )-एक वाक्य है कि ब्राह्मण को बिना स्वार्थ (कामना ) के नित्य रूप से धर्म और छह अंगों के साथ वेद का अध्ययन करना चाहिए और जानना भी चाहिए । हरदत्तादि इस वाक्य को श्रुति मानते हैं जब कि कुमारिल आदि इसे स्मृति मानते हैं। (स्मृति भी आगम-मूलक होने से आगम ही है)। इस आगम से तो पता लगता है कि व्याकरण का अध्ययन नित्य रूप से दृष्ट फल की अभिसन्धि रखे ही बिना करना चाहिए। यही नहीं, व्याकरण वेदाङ्गों में प्रधान है और प्रधान विषय में किया गया परिश्रम सफल होता है ।
(४) लघु ( Facility )-किसी व्यक्ति को शब्दों का ज्ञान कराना अत्यन्त आवश्यक है। उसके लिए व्याकरण से छोटा उपाय हो ही नहीं सकता। प्रतिपद-पाठ करतेकरते आदमी मर जायगा पर समाप्ति नहीं होगी। व्याकरण सरलतम विधि से शब्द-ज्ञान करा देता है।
(५) असन्देह ( Ascertainment )-व्याकरण-शास्त्र ही सन्देह का निवारण करता है। श्रुति में कहा है-स्थूलपृषतीमनड्वाहीमालभेत । अनड्वाही का अर्थ है गाय । उसका विशेषण है स्थूलपृषती । अब यह सन्देह है कि 'स्थूला चासौ पृषती' अर्थात् ऐसी गाय लायें जो स्थूल ( मोटी ) और गोले गोले चिह्नों से युक्त भी हो ( कर्मधारय समास ) अथवा 'स्थूलानि पृषन्ति यस्याः सा' (जिसके गोले चिह्न बड़े हों ऐसी गाय-बहुव्रीहि समास ) हो । पहले विग्रह में गौ के चिह्न बड़े हों या छोटे हों कोई बात नहीं । दूसरे विग्रह में गौ मोटी हो या पतली, कोई बात नहीं। एक बड़ा अन्तर है। अब वैयाकरण 'स्थूलपृषती' शब्द में पूर्वपद का अन्तोदात्त देखकर निश्चित कर लेता है कि यहाँ बहुव्रीहि समास होगा, क्योंकि इसके लिए सूत्र है-'बहुव्रीही प्रकृत्या पूर्वपदम्' (पा० सू० ६२१) जिससे पूर्वपद का प्रकृति-स्वर होता है। यदि कर्मधारय होता तो 'समासस्य' ( पा० सू० ६।१। २२३ ) से अन्तोदात्त होता । इस प्रकार वैयाकरण सन्देह का निवारण करता है।