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________________ सांस्य-वर्शनम् ५४९ प्रकाशक है । बस, प्रकाशकत्व का धर्म समान होने से शुक्ल शब्द सत्वगुण का बोधक हुआ। काले पदार्थ, जैसे मेघ आदि सूर्यादि के आवरक ( ढंकनेवाले ) हैं । तमोगुण भी आवरक ही है, अतः कृष्ण शब्द का अर्थ तमोगुण ही है । प्रकृति को जहाँ 'लोहितशुक्लकृष्णा' कहा है, वहाँ उसका अर्थ 'त्रिगुणात्मिका' है। ___यह त्रिगुणात्मिका प्रकृति अपने ही अनुरूप ( = त्रिगुणात्मक ) बहुत से पदार्थों की सृष्टि करती है । पदार्थों को प्रजा कहा गया है । बद्ध पुरुष इसी प्रकृति की सेवा में लगा रहता है । प्रकृति के कार्यों को ( बुद्धि, मन आदि को ) अपना ही समझकर प्रकृति के साथसाथ संसार में घूमता रहता है । दूसरा मुक्त पुरुष इस प्रकृति को छोड़ देता है, क्योंकि वह प्रकृति का पुरुष से पार्थक्य जान लेता है । वह मुक्त पुरुष एक बार प्रकृति का भोग कर चुका है, इसलिए प्रकृति उसके लिए 'भुक्तभोगा' है। इस मन्त्र में पूर्वार्ध प्रकृति के लिए है, उत्तरार्ध में पुरुष का वर्णन हुआ है। दो प्रकार के पुरुष भी मानना सांख्यों के बहुपुरुषवाद का परिचायक है । वाचस्पति ने अपनी तत्त्वकौमुदी का आरम्भ इसी मन्त्र की संगति बैठाकर किया है। (१०. प्रधान को निरपेक्षता ) नन्वचेतनं प्रधानं चेतनानधिष्ठितं महदादिकार्ये न व्याप्रियते। अतः केनचिच्चेतनेनाधिष्ठात्रा भवितव्यम् । तथा च सर्वार्थदर्शी परमेश्वरः स्वीकर्तव्यः स्यादिति चेत् तदसंगतम् । अचेतनस्यापि प्रधानस्य प्रयोजनवशेन प्रवत्त्युपपत्तेः। ___ यह शंका होती है कि अचेतन प्रधान ( प्रकृति ) किसी चेतन की सहायता लिये बिना महत आदि कार्यों को उत्पन्न करने का काम नहीं कर सकती। बिना चालक के मोटरगाड़ी नहीं दौड़ जाती । दृष्ट आधार पर ही तो अदृष्ट की सिद्धि होती है। बिना चेतन कर्ता की सहायता लिये अचेतन वस्तु कुछ भी काम नहीं करेगी। ] इसलिए [ प्रकृति के इस व्यापार के पीछे ] किसी चेतन अधिष्ठाता ( कर्ता ) का रहना जरूरी है। ऐसी दशा में सभी पदार्थों को देखनेवाले परमेश्वर को मानना पड़ेगा। ____यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि यद्यपि प्रधान अचेतन है फिर भी किसी विशेष प्रयोजन से वह प्रवृत्त होता है [ और अपने व्यापार में लगता है ] । ___ दृष्टं चाचेतनं चेतनानधिष्ठितं पुरुषार्थाय प्रवर्तमानं यथावत्सविवद्धयर्थमचेतनं क्षीरं प्रवर्तते, यथा च जलमचेतनं लोकोपकाराय प्रवर्तते, तथा प्रकृतिरचेतनापि पुरुषविमोक्षाय प्रवर्त्यति । तदुक्तम्१. अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः । अजा ये तां जुषमाणां भजन्ते जहत्येनां भुक्तभोगां नुमस्तान् ।। (त० को० मंगल, १)
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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