SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 677
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४० सार्ववर्शनसंग्रहे होती और सभी लोग ही साथ मुक्त हो जाते । यह संसार चलता ही केसे ? प्रकृति एक होने के कारण ये दोष लगते हैं पर अविद्या में ऐसी कोई बात नहीं। ] ___ अतः पूरे संसार के उच्छेद ( समाति ) का प्रसंग आयगा ही नहीं, यह दोष [ अविद्या मानने पर ] नहीं हो सकेगा। फलतः परिणामवाद त्याज्य है। हमारा विवर्तवाद ही मानना चाहिए । [ वस्तु जिस समय अपनी अवस्था छोड़कर दूसरी अवस्था में या जाती है तब परिणाम उसे कहते हैं, जैसे-दूध का दही में परिणाम । सभी लोगों के लिए परिणाम एक ही रहता है । सभी लोग दूध का परिणाम दही में देखेंगे। प्रकृति का परिणाम कार्यों के रूप में होता है जिसे सभी जीव एक ही तरह से समझते हैं । यही कारण है कि एक जीव के मुक्त होने पर सभी जीवों के मुक्त होने का प्रसंग आ जाता है। विवर्त में ऐसी बात नही हो सकती । वस्तु जब अपनी पहली अवस्था का त्याग किये ही बिना दूसरी अवस्था के रूप में केवल प्रतीत होती है तब उसे विवर्त कहते हैं, जैसे सीपी में रजत की प्रतीति (भान, apprehension ) । साधन के भेद से प्रत्येक जीव की प्रतीति अलग-अलग होती है । अतः एक की प्रतीति के निवारण से सबों की प्रतीति दूर हो जायगी-ऐसी बात नहीं।] ननु जीवजडयोः सारूप्याभावेन चिद्विवर्तत्वं प्रपञ्चस्य न सम्परिपद्यत इति प्रागवादिष्मेति चेत्-नैतत्साधु न हि सारूप्यनिबन्धनाः सर्वे विभ्रमा इति व्याप्तिरस्ति । असरूपादपि कामादेः कान्तालिङ्गनादिष्विव स्वप्नविभ्रमस्योपलम्भात् । किं च कादाचित्के विभ्रमे सारूप्यापेक्षा नानाद्य विद्यानिबन्धने प्रपञ्चे। [ पूर्वपक्षी फिर शंका कर सकते हैं कि ] जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं-जीव और जड़ ( संसार ) में समरूपता न होने के कारण वह प्रपञ्च चित् ( जीव ) का विवर्त नहीं माना जा सकता । [ सामान्यतः यह देखा जाता है कि जब किसी वस्तु को दूसरे रूप . में मिथ्याप्रतीति होती है, तो दोनों में समरूपता होनी चाहिए । सीपी की प्रतीति रजत के रूप में होती है, क्योंकि दोनों उजले हैं, ठोस हैं आदि । सीपी की प्रतीति लौह के रूप में क्यों नहीं होती ? यदि संसार को जीव ( ब्रह्म) का विवर्त मानते हैं, तो दोनों में समरूपता होनी चाहिए, परन्तु वह है कहाँ ? एक जड़ है, दूसरा चेतना । अतः जगत को चित का विवर्त मानना गलत है। इस पर शंकर के अनुयायी कहते हैं कि ] यह सोचना ठीक नहीं। ऐसी कोई व्याप्ति ( निश्चित नियम, अविनाभाव सम्बन्ध ) नहीं है कि सभी विभ्रम समरूपता के आधार पर ही होते हैं। काम आदि की वृत्तियाँ यद्यपि असरूप हैं ( रूप से ही हीन हैं, सरूपता-असरूपता तो बाद की चीजें हैं ] फिर भी स्वप्न में कान्ता का आलिंगन करने के जैसा भ्रम हो जाता है । [ काम का अर्थ है तीव्र अभिलाषा के रूप में चित्त का चंचल होना। काम का अधिक ध्यान करने से स्वप्न में कान्तालिंगन का भ्रम होता है।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy