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________________ पूर्णप्रश-पर्सनन् २२१ चार वाक्य लिख देना कोई बुरा नहीं है। इससे भेदवाद की जड़ और भी जम जायगी। इसलिए वे कहते हैं-] अथवा वैशेषिकों के धर्मभेदवाद को ही स्वीकार करें, उसमें भी कोई दोष नहीं है। धर्मी और प्रतियोगी का ज्ञान होने पर, उसके बाद उन पर ही आधारित ( घटित ) भेद का ग्रहण हो जाता है। [ यह अभिप्राय है कि पहले घटधर्मों का ज्ञान घट-सामान्य के रूप में तथा पट-प्रतियोगी का ज्ञान पट-सामान्य के रूप में हो जाता है, तब घट और पट में क्रमशः मित्व और प्रतियोगित्व की स्थापना के साथ ही साथ सामूहिक-ज्ञान ( Knowledge of a group ) की तरह एक ही क्रिया से भेद का ग्रहण भी हो जायगा । इसी को धर्मि-प्रतियोगिघटित भेद कहते हैं । यहाँ पर कारण-बुद्धि और कार्यबुद्धि एक साथ नहीं होती। इसलिए पूर्वोक्त दोष होने की सम्भावना है, किन्तु वह बात नहीं है। घट और पट का जो ग्रहण धर्मी और प्रतियोगी के रूप में हो रहा है वह भेद के ज्ञान का कारण नहीं है। बल्कि घट और पट का जो ज्ञान घटत्व और पटत्व के रूप में किया गया था वही भेद-ज्ञान का कारण है। घट को भेद का धर्मो मानना और पट को भेद का प्रतियोगी मानना तो वस्तु की सत्ता होने पर ही भेदज्ञान का कारण होता है। इसलिए उक्त दोष नहीं लगता । ] ___ अन्योन्याश्रय-दोष की भी सम्भावना यहाँ नहीं है, क्योंकि दूसरों (भिन्न वस्तुओं) की अपेक्षा न रखते हुए ही, भेद-युक्त वस्तु का ग्रहण होता है, इसलिए धर्म-भेद ( Difference in attributes ) का ग्रहण होना सम्भव है। [ अन्योन्याश्रय-दोष का आरोपण इसलिए होता है कि घट का घटत्व-रूप में और पट का पटत्व-रूप में ज्ञान होना भेद-ज्ञान के ऊपर निर्भर करता है, दूसरी ओर भेद-ज्ञान इस प्रकार के ज्ञान पर निर्भर करता है। परन्तु यह दोष नहीं होता-स्वरूपभेदवाद में वस्तु सबसे विलक्षण स्वरूप की मानी जाती है। घट पट के ज्ञान में इनसे विलक्षण स्वरूपों से ही ज्ञान हो जायगा, इसमें दूसरों की अपेक्षा ही नहीं है-ज्ञान तो स्वरूप से हो रहा है । अतः घट का घटत्व रूप में और पट का पटत्व-रूप में ज्ञान होने पर भेद-ज्ञान की सापेक्षता ( भेद-ज्ञान पर आधारित होना) नहीं रहेगी। इसके बाद धर्मो-प्रतियोगी बनाकर दोनों पदार्थों के भेद की कल्पना होगी।] __ ऐसा भी यहाँ कहना ठीक नहीं है कि, धर्मभेदवाद को स्वीकार कर लेने पर अनवस्थादोष इसलिए उत्पन्न होगा कि प्रत्येक भेद को किसी दूसरे भेद के द्वारा पृथक् करने की आवश्यकता होगी। [ घट में भेद है जिसका प्रतियोगी है पट, इस प्रथम भेद के द्वारा घट को भेद्य ( = प्रथम भेद से घट भिन्न है-ऐसे व्यवहार के योग्य ) समझते हैं। अब प्रथम भेद का प्रतियोगी घट हो गया, इस प्रथम भेद में द्वितीय भेद है-जिसके द्वारा प्रथम भेद को ही भेद्य समझते हैं । द्वितीय भेद का प्रतियोगी प्रथम भेद है, द्वितीय भेद में एक तृतीय भेद की कल्पना करनी पड़ेगी, जिसके द्वारा द्वितीय भेद को भेद्य समझेंगे । इस प्रकार अन्त न होनेवाली एक परम्परा चलती रहेगी। ] यह अनवस्था इसीलिए नहीं होगी कि दूसरे
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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