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________________ १०० सर्ववसनबाहे (६. ज्ञान का साकार होना और रोब ) अथ भिन्नकालस्यापि तस्याकारापकत्वेन ग्राह्यत्वम्-तदप्यपेशलम् । क्षणिकस्य ज्ञानस्याकारार्पकताश्रयताया दुर्वचत्वेन साकारज्ञानवादप्रत्यादेशात। निराकारज्ञानवादेऽपि योग्यतावशेन प्रतिकर्मव्यवस्थायाः स्थितत्वात् । तथा हि प्रत्यक्षेण विषयाकाररहितमेव ज्ञानं प्रतिपुरुषमहमहमिकया घटादिग्राहकमनुभूयते, न तु दर्पणादिवत्प्रतिबिम्बाकान्तम् । ____ अब यदि कहा जाय कि [ वस्तु ज्ञान से ] भिन्न काल में भी हो तो भी अपने आकार की छाप उस पर दे देने के कारण ग्राह्य ( Perceptible ) ही रहेगी, यह कहना भी ठीक नहीं है । ( आशय यह है कि घट, पट आदि विषय यद्यपि क्षणिक हैं तथापि नष्ट होने के पूर्व अपने आकार के सदृश आकार छोड़ जाते हैं । इसलिए ज्ञान के क्षण में वस्तु की सत्ता न होने पर भी वस्तु ज्ञानग्राह्य कहलाती है। आकार की छाप छोड़ना ही ग्राह्य होना है। इस प्रकार क्षणिकवाद के पक्ष में तर्क देकर उसे सिद्ध करने का प्रयास किया गया है । अब जेन इसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि यह तर्क ठीक नहीं । ) इसका कारण यह है-क्षणिक पदार्थ ( जैसे घट, पटादि), ज्ञान पर अपने आकार की छाप छोड़ेगा, इसका आश्रय लेना (= यह कहना ) ही असम्भव है और इसलिए 'ज्ञान साकार है' इस सिद्धान्त ( वाद ) का ही खण्डन हो जायगा [ घटादि विषय क्षणिक हैं । ये ज्ञान पर अपनी छाप छोड़ते हैं। जब पूर्वक्षण में विद्यमान, आकार की छाप छोड़नेवाला विषय स्थित है तो आकार की छाप ग्रहण करनेवाला, उत्तरक्षणिक ज्ञान ही नहीं है। जब आकार ग्राहक उत्तर क्षणवाला ज्ञान है, तब पूर्वक्षणिक आकार समर्पक ज्ञेय ( विषय ) ही नहीं रहता। इस प्रकार यह कहना कठिन है कि कोई किसी को अपना आकार देता है या कोई आकार ग्रहण करता है। इसलिए आकार ज्ञान का सिद्धान्त बौद्धों के मत से खण्डित हो जाता है । बौद्धों के अनुसार ज्ञानकी साकारता सिद्ध ही नहीं हो सकती।] ___ ज्ञान को निराकार मानने का सिद्धान्त रखने पर भी [ अव्यवस्था हटाने के लिए ] योग्यता के अनुकूल सभी विषयों की व्यवस्था माननी ही पड़ेगी। [ निराकार ज्ञान मानने में एक बड़ा दोष यह होता है कि सभी प्रकार के ज्ञान-चाक्षुष, स्पार्शन, रासन, श्रावण आदि-एक समान हो जाते हैं और चाक्षुष का विषय रूप है, स्पार्शन, का स्पर्श, रासन का रस, श्रावण का शब्द इत्यादि नियत विषयों की व्यवस्था नहीं हो सकती है। इसलिए विशृङ्खलता दूर करने के लिए नियामक ( Controller ) के रूप में योग्यता' को शरण लेनी पड़ती है। योग्यता के ही कारण रसनेन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान रस का ग्राहक होता है-ऐसी व्यवस्था संभव है । ज्ञान को साकार मानने पर भी चक्षुरिन्द्रिय से उत्पन्न शान रूप का आकार ग्रहण करता है ऐसी व्यवस्था होती है।]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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