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________________ माहत-पर्शनम् १०१ [ अब निराकार ज्ञान के सिद्धान्त में प्रत्यक्ष अनुभव देते हैं-] जैसे, प्रत्यक्ष के द्वारा विषय और आकार से रहित [ भावात्मक Abstract ] ज्ञान, जो घटादि का ग्राहक है, प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से ( अहमहमका से ) अनुभूत होता है, दर्पणादि के समान यह ज्ञान केवल प्रतिबिम्ब (परछाई) ग्रहण नहीं करता। ( समस्या यह है कि ऊपर कहे गये तथ्यों के अनुसार, वस्तु.ज्ञान को अपने आकार का यदि समर्पण कर देता है तो दर्पण की ही तरह वस्तु का प्रतिबिम्ब ज्ञान ले लेता होगा तथा उसके द्वारा आन्तर प्रत्यक्ष से अनुभूत होता होगा । किन्तु आन्तर प्रत्यक्ष केवल सुख, दुःख, इच्छादि आन्तर भावों के ही लिए सुरक्षित है न कि बाह्य विषयों-घट, पटादि के प्रत्यक्षीकरण के लिए। इनका ज्ञात तो बाह्य प्रत्यक्ष से होता है । घटादि का ग्राहक ज्ञान ( 'मैं घट देखता है ) प्रत्येक व्यक्ति को विषय और आकार से पृथक् रूप में ही होता है इसलिए ज्ञान की निराकारता ही सिद्ध होती है।) विषयाकारघारित्वे च ज्ञानस्यार्थे दूरनिकटादिव्यवहाराय जलाञ्जलिवितीर्येत । न चेदमिष्टापादानमेष्टव्यम् । दवीयान्महीधरो नेदोयान्दी? बाहुरिति व्यवहारस्य निराबाधं जागरूकत्वात् । न चाकाराधायकस्य तस्य दवीयस्त्वादिशालितया तथाः व्यवहार इति कथनीयम् । दर्पणादौ तथानुपलम्भात् । [साकार ज्ञानवाद में दूसरा दोष-] यदि ज्ञान का प्रयोजन विषय के आकार को धारण कर लेना भर है तो इसमें दूर, निकट आदि व्यवहार के शब्दों को तिलांजलि दे दी जायगी ( छोड़ देना पड़ेगा )। [ दूर, निकट आदि शब्दों का सम्बन्ध ज्ञाता के साथ है, न कि ज्ञान के साथ । अभ्यंकरजी के शब्दों में छायाचित्र लेनेवाले दर्पण में बड़े-बड़े पहाड. छोटे दर्पण में आने योग्य अपने ही सदृश छोटे आकार के द्वारा प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार साकार ज्ञानवादी बौद्धों के मत से पर्वतादि के प्रत्यक्ष ज्ञान के समय बड़ा होने पर भी ये पहाड़, ज्ञानमय चित्त में आने के योग्य आकारों को धारण करके उसमें प्रवेश करते हैं। तो, ज्ञानमय चित्त में प्रविष्ट छोटे पर्वतादि ही विषयीभूत अर्थ हैं, न कि उस प्रकार के आकार को समर्पित करनेवाले, बाह्य-जगत में विद्यमान बड़े-बड़े पहाड़। इसलिए विषय बने हुए पदार्थ दूर में, नजदीक में या बड़े हैं इस तरह के व्यवहारों की असिद्धि हो जायगी। ] इस इष्ट वस्तु के प्रतिपादन को खोजने की जरूरत भी नहीं है । यह पहाड़ कुछ अधिक दूर ( Further ) है, 'यह बड़ी बाँह नजदीक ( Nearer ) है-ऐसा व्यवहार बिना रोक-टोक के सदा चलता रहता है। [ जब दूर और निकट के व्यवहार चलते हैं और उन्हें ज्ञानमय चित्त में (ज्ञान को साकार मानकर ) सिद्ध करना कठिन है तब तो यह 'विषम उपन्यास' हो जायगा और दोनों में से किसी एक को हटाना पड़ेगा। व्यवहार को रोक नहीं सकते, रुकेगा तो साकार ज्ञानवाद ही । अतएव वह दोषपूर्ण है। ]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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