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________________ ९९ आहेत-दर्शनम् है, दूसरी ओर गुरु को धन देने का आदेश भी मिल रहा है। इससे अधिक बौद्धों का चरित्र और क्या होगा ? वह तो ढोंग की पराका-ठा है। व्यवहार क्या है और सिद्धान्त क्या? (५. क्षणिकत्व-पक्ष में ग्राह्य-ग्राहक-भाव न होना ) किं च क्षणिकत्व-पक्षे ज्ञानकाले ज्ञेयस्यासत्त्वेन, ज्ञेयकाले ज्ञानस्यासत्त्वेन च ग्राह्य ग्राहकभावानुपपत्ती सकललोकयात्रास्तमियात् । न च समसमयलिता शकुनीया । सव्येतरविषाणवत्कार्यकारणभावासम्भवेनाग्राह्यस्यालम्बनप्रत्ययत्वानुपपत्तः। ___ इसके अलावे, यदि क्षणिकवाद को मानते हैं, तो ज्ञान के समय ज्ञय पदार्थ की सत्ता नहीं रहेगी, उसी प्रकार ज्ञय-पदार्थ के समय ज्ञान की सत्ता नहीं रहेगी। (ज्ञेय पदार्थ कारण है और ज्ञान कार्य है। पहले ज्ञेय होगा तब ज्ञान, दोनों एक साथ रहेंगे ही नहीं, क्योंकि वे पूर्वापर के क्रम से होते हैं । ) इसलिए ग्राह्य और ग्राहक के सम्बन्ध को सिद्धि नहीं होगी और संसार के सारे काम अस्त हो जायेंगे। [न तो कोई ग्राहक रहेगा और न कोई ग्राह्य-क्योंकि सभी पदार्थ क्षण-क्षण में बदलते जा रहे हैं । ] आप यह भी नहीं सोच सकते कि दोनों ( ग्राह्य-ग्राहक ) एक ही समय में रहेंगे। ऐसा होने से (= ग्राह्य और ग्राहक को समसामयिक मान लेने पर ), बायीं और दायीं सींग की तरह, उनमें कार्य-कारण भाव ( Causal relation ) नहीं हो सकता और इसीलिए जो वस्तु ग्राह्य नहीं है (= अग्राह्य है ), उसे आलम्बन-प्रत्यय (विषय Object) के रूप में नहीं लिया जा सकता। विशेष-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार दोनों सींगें एक-दूसरे का कारण कार्य नहीं, उसी प्रकार समकालिक हो जाने पर ग्राह्य-ग्राहक में भी कार्य-कारण नहीं हो सकेगा । आलम्बन' एक प्रकार का प्रत्यय ( कारण ) है, जिसे सौत्रान्तिक मत की प्रस्तावना में हमें हम स्पाट कर चुके हैं (पृ० ७५ ) । आलम्बन वास्तव में 'नील', 'घट', “पट' आदि विषयों को कहते हैं-तत्र ज्ञानपदवेदनीयस्य नीलाद्यवभासस्य चित्तस्य नीलादालम्बनप्रत्ययान्नीलाकारता भवति । आलम्बन-प्रत्यय केवल ग्राह्य का हो सकता है। जिसमें कार्यकारण-भाव हो सके वही ग्राह्य है। यहाँ पर यदि ग्राह्य-ग्राहक या ज्ञेय-ज्ञान को समसामयिक मान लेंगे तो कार्य-कारण भाव रहेगा ही नहीं और उस अवस्था में ये अग्राह्य हो जायेंगे । फलतः आलम्बन-प्रत्यय ये नहीं होंगे । इस प्रकार अपने ही अस्त्र से अपना सिद्धान्त खण्डित होगा। कावेल प्रस्तावित करते हैं कि 'अग्राह्यस्य' के स्थान में 'ग्राह्यस्य' रखा जाय और वे वसा ही करते हैं । यह भी ठीक है ग्राह्य ही विषय है, उसका आलम्बन नहीं होगा। ,
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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