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________________ शांकर-दर्शनम् ७५१ [ हमारे प्रमाण को देखकर सम्भवतः आप कह उठेंगे कि ] प्रपञ्च ( संसार ) को सत्यता के लिए भी यही न्याय ( Analogy ) क्यों न लगाया जाय? पर ऐसा समझना भूल है। उसकी सत्यता के लिए कोई आगम (श्रुति-वाक्य ) है ही नहीं । उलटे, जिस समय श्रुति अद्वितीय तत्त्व ( जैसे—सदेव सौम्येदमग्र आसीत्, एकमेवाद्वितीयम्-छां० ६।२।१ ) का प्रतिपादन करती है तो प्रपञ्च को मिथ्या सिद्ध करने की ओर ही उसका पक्षपात रहता है। विशेष-प्रपञ्च का मिथ्या होना या आत्मा की सत्यता के लिए अनुमानादि लौकिक प्रमाण सहायक भले हों, निर्णायक नहीं हो सकते । निर्णय करने का काम श्रुति से ही सम्भव है । श्रुतियाँ सर्वज्ञ ईश्वर के निःश्वास के रूप में हैं। उनकी प्रामाणिकता हमें माननी ही होगी। ननु कल्पनामात्रशरीरस्य पक्ष-सपक्ष-विपक्षादेः सर्वसुलभत्वेन जयपराजयव्यवस्थया कथं कथा प्रथेत ? कात्र कथन्ता ? ‘एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः।' ( श्लो० वा० ११२ सूत्रे ) इति न्यायेन त्रिचतुरकक्ष्याविश्रान्तस्य तत्तदाभासलक्षणानालिङ्गितस्य दूषणभूषणादेस्तत्र कथाङ्गत्वाङ्गीकारात् । अब शंका हो सकती है कि पक्ष, विपक्ष, सपक्ष आदि करना सबों के लिए सम्भव हो गया, क्योंकि केवल कल्पना के सहारे तो यह सब करना है, तो जय या पराजय की व्यवस्था (निर्णय ) करने के लिए कथा ( Discussion ) की क्या आवश्यकता रह गयी ? [ कहने का तात्पर्य यह है कि वाक्यपदीय की उपर्युक्त कारिका से तो तर्क को अप्रतिष्ठा हो जाती है-वादी और प्रतिवादी दोनों ही अपनी-अपनी इच्छा से अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए अनुमान देंगे । तो न किसी की पराजय होगी और न विजय ! तब तत्त्व का निर्णय कैसे होगा कि तथ्य क्या है ? ] [ उत्तर देते हैं- ] इसमें 'कैसे' की स्थिति ही नहीं आवेगी। [ कुमारिल का कहना है कि ] इस रूप में ( तत्त्व का निर्णय करने के समय ) बुद्धि तीन-चार ज्ञानों को जन्म देने के बाद आगे नहीं बढ़ सकती । इस नियम से जो बाधक (दूषण) या साधक ( भूषण ) ज्ञान होगा वह तीन-चार कोटियों में ही विश्रान्त ( समाप्त ) हो जायगा तथा वह आभास ( हेत्वाभासादि ) के लक्षणों से पृथक् रहेगा । ऐसे ज्ञान को हम कथा का अंग स्वीकार कर लेंगे। [ तत्त्व का निर्णय करनेवाला ज्ञान तीन-चार कोटियों तक चलता है, उसके बाद नहीं । ऐसा ज्ञान ही कथा है । जो अल्प और वितण्डा के रूप में ज्ञान होता है, आभासयुक्त है उसे तो तर्क से कुछ लेना-देना है ही नहीं, अतः विश्रान्त होता ही नहीं। उसे हम कथाङ्ग नहीं कह सकते । ]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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