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शांकर-दर्शनम्
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प्रतीति होती है । ऐसा भी न करें कि प्रपंच प्रतीत होता है अतः किसी तरह इन दोनों सिद्धान्तों का ही निर्वाह करके, प्रपंच सत्य है, यही मान लें । कारण यह है कि ज्ञानियों की दृष्टि से इस प्रतीति में बाध ( प्रतिरोध ) उत्पन्न होता है। यदि यह संसार सत्य होता तो इसको प्रतीति में प्रतिरोध नहीं होता। ] प्रतीति के बाध की सिद्धि किसी भी दूसरे उपाय से नहीं हो सकने के कारण, विवश होकर इस अनिर्वचनीय ( Inexplicable ).प्रपञ्च को चित्र या आत्मा का विवर्त मानते हैं यह सिद्ध हुआ। [ अनिर्वचनीय = जिसका बाध ज्ञान से सम्भव है। ]
अपने रूप का परित्याग किये बिना ही दूसरे रूप का आपादन करना विवर्त है। इसे सत्य और मिथ्या नाम का अवभास कहते हैं । [ आत्मा सत्य है तथा अहंकार आदि प्रपंच मिथ्या । अहंकारादि अनात्म-पदार्थ पर आत्मा के स्वरूप का अध्यास नहीं होता बल्कि आत्मा के संसर्ग का ही अध्यास होता है । किन्तु आत्मा पर अहंकार आदि अनात्म-पदार्थ जो मिथ्या हैं, उनका स्वरूप भी अध्यस्त होता है । सीपी में रजत का अध्यास भी ऐसा ही है जिसमें सीपी अपने रूप का त्याग किये बिना ही रजत के रूप में बदल जाती है।] अवभास और अध्यास, ये दोनों पर्याय ( Synonym ) हैं ।
( १० क. अध्यास के भेद-दो प्रकार से ) स चाध्यासो द्विविधः-अर्थाध्यासो ज्ञानाध्यासश्चेति । तदुक्तम्१०. प्रमाणदोषसंस्कारजन्मान्यस्य परात्मता।
तद्धीश्चाध्यास इति हि द्वयमिष्टं मनीषिभिः ॥ इति । यह अध्यास दो प्रकार का है- अर्थाध्यास तथा ज्ञानाध्यास [ सीपी पर मिथ्या रजत का अभ्यास होना अर्थाध्यास है । यह वही भ्रम है जिसमें मिथ्या का आधार कोई पदार्थ रहता है । एक अर्थ ( वस्तु ) का दूसरे पर आरोप होना अर्थाध्यास ( Superimposition of objects ) है । जब मिथ्याज्ञान का आत्मा पर आरोप होता है तब उसे ज्ञानाध्यास ( Superimposition of knowledge ) कहते हैं। [ इसे कहा गया है-'प्रमाण ( नेत्र आदि ), दोष ( दूरी आदि ) तथा संस्कार ( रजत के पूर्वानुभव से आत्मा में उत्पन्न संस्कार ), इन तीनों से उत्पन्न होनेवाली, एक वस्तु की जो दूसरे रूप में प्रतीति है; वह तथा उसका ज्ञान-ये दोनों अध्यास हैं, यह मनीषियों को अभीष्ट है ॥१०॥' [प्रस्तुत स्थल में अन्यथा-प्रतीति के तीन कारण दिये गये हैं। प्रमाण, दोष और संस्कार से ही मिथ्याख्याति होती है। ] पुनरपि द्विविधोऽध्यासः । निरुपाधिकसोपाधिकभेदात् । तदप्युक्तम्११. दोषेण कर्मणा वापि क्षोभिताज्ञानसम्भवः ।
तत्वविद्याविरोधी च भ्रमोऽयं निरुपाधिकः ॥