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सर्वदर्शनसंग्रहे
नहीं थे। इससे पूरे ग्रन्थ के विषयों का अवगाहन कराना उनका लक्ष्य था। इसके बाद उस दर्शन की मुख्य समस्याओं पर भी वे विचार करते हैं ।
( २. प्रथम सूत्र तथा अधिकरण का निरूपण ) तत्राथातो धर्मजिज्ञासा ( जै० सू० ११११) इति प्रथममधिकरणं पूर्वमीमांसारम्भोपपादनपरम् । अधिकरणं च पञ्चावयवामाचक्षते परीक्षकाः। ते च पञ्चावयवा विषयसंशयपूर्वपक्षसिद्धान्तसंगतिरूपाः।
उनमें 'अथातो धर्मजिज्ञासा' ( अब इसलिए धर्म की जिज्ञासा आरम्भ होती है, जै० सू० १।१।१)—यह प्रथम अधिकरण (Topic ) है जिसका उद्देश्य पूर्व मीमांसा के आरम्भ का उपपादन (सिद्धि ) करना है। परीक्षक लोग कहते हैं कि अधिकरण में पांच अवयव ( अंग ) रहते हैं। वे पांचों अवयव हैं-विषय, संशय, 'पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और संगति ।
विशेष-वेदों में प्रतिपादित याग आदि को धर्म कहते हैं, उसको जिज्ञासा अर्थात् विचार करना चाहिए । चूंकि अध्ययन का फल है अर्थज्ञान, इसलिए गुरुकुल में रहकर वेदाध्ययन करके धर्म का विचार करना चाहिए-यही सूत्र का अर्थ है।
किसी भी शास्त्र का अध्ययन कई अधिकरणों में बंटा रहता हैं । इन अधिकरणों की एक निश्चित विधा है जिसमें पांच अवयव रहते हैं। जिस पर आधारित होकर कोई विचार प्रवृत्त होता है उसे विषय ( Subject ) कहते हैं । यहाँ पर शास्त्र ही विषय है। विषय का उल्लेख करने के अनन्तर संशय ( Doubt ) का स्थान है जिसमें दो या दो से अधिक पक्षों की संभावना पर विचार होता है। ये दोनों पक्ष कहीं तो भावरूप ( Affirmative ) होते हैं-यह स्थाणु है या पुरुष ? कहीं पर भाव और अभाव दोनों रूपों में रहते हैं—यहाँ पुरुष है या नहीं ? वादी के द्वारा प्रतिपादित वस्तु को पूर्वपक्ष ( Opposition ) कहते हैं जिसमें प्रस्तुत वस्तु के विरोध में तर्क का उपन्यास होता है। निर्णय करना सिद्धान्त ( Reply ) है। संगति ( Rec.nc liation ) तीन हैं-शास्त्रसंगति, अध्यायसंगति तथा पादसंगति । कोई विचार किस शास्त्र में, किस अध्याय में और किस पाद में करना ठीक है, यही संगति है । उसी प्रकार पूर्वाधिकरण और उत्तराधिकरण में पारस्परिक अवान्तरसंगति भी ठीक की जाती है। कुमारिल भट्ट के अनुयायी लोग संगति को अधिकरण के अंग के रूप में स्वीकार नहीं करते । वे लोग उत्तर को अधिकरण मानते हैं । वादियों के मत का खंडन करनेवाला वाक्य ही उत्तर है। उसके बाद निर्णय का स्थान है चूंकि खंडन गलत उत्तर देकर भी हो सकता है अत: निर्णय को पृथक् रखा गया है । भाट्टों का यह कहना है
विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम् । निर्णयश्चेति पञ्चाङ्ग शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥