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________________ पातब्बल-मसनम् ६२७ का आधिपत्य' कहलाता है। इन्हीं भावों का, जो शान्त ( भूत ), उदित ( वर्तमान ) और अव्यपदेश्य ( भविष्यत् ) धर्मों से युक्त होकर अवस्थित हैं, विवेक ज्ञान होना सर्वज्ञता है । [ उपर्युक्त भावों में शान्त आदि धर्म रहते हैं, यदि उन भावों का ज्ञान धर्म से भिन्न रूप में हो गया तो 'सर्वज्ञता' मिल गई । कुछ धर्म शान्त हैं अर्थात् अपना व्यापार करके अतीत के क्षेत्र में चले गये हैं। कुछ धर्मों का व्यापार अभी चल रहा है, ये उदित हैं । कुछ धर्म ऐसे हैं जिनका व्यापार अभी आरम्भ नहीं हुआ है, शक्ति रूप में जो अवस्थित हैं, जिनके विषय में कुछ भी कहना-उनका नाम ( व्यपदेश ) लेना भी सम्भव नहीं है। इन तीनों धर्मों से धर्मी का भेद करके ज्ञान पाना विवेकज्ञान है । तात्पर्य यह है कि सभी वस्तुओं और उनके धर्मों का अलग-अलग ज्ञान पाना 'सर्वज्ञता' है। ] उसे कहा है-'अथवा शोक से रहित ज्योतिष्मती ( योगज साक्षात्कार के रूप में अन्तःकरण की वृत्ति ) [ मन में स्थिरता उत्पन्न करती है-यो० सू० ११३६ ] 1 ( यह सिद्धि अतिक्रान्तभावनीय नामक चतुर्थ योगी को प्राप्त होती है।) सर्ववृत्तिप्रत्यस्तमये परं वैराग्यमाश्रितस्य जात्यादिबीजानां क्लेशानां निरोधसमर्थो निर्बीजः समाधिरसम्प्रज्ञातवेदनीयः संस्कारशेषताव्यपदेश्यश्चित्तस्यावस्थाविशेषः। तदुक्तं-'विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः' ( पात० यो० सू० ११८) इति । एवं च सर्वतो विरज्यमानस्य तस्य पुरुष. धौरेयस्य क्लेशबीजानि निर्दग्धशालिबीजकल्पानि प्रसवसामर्थ्यविधुराणि मनसा साधं प्रत्यस्तं गच्छन्ति । सभी वृत्तियों के नष्ट हो जाने पर, जो योगी परम वैराग्य से युक्त हो गया है उसे बीज ( वस्तु-ज्ञान ) से रहित समाधि मिलती है जो जाति [ आयु, भोग के ] बीज के रूप में विद्यमान क्लेशों को रोकने में समर्थ है । इस समाधि को 'असम्प्रज्ञात' शब्द के द्वारा भी जानते हैं और यह 'संस्कारशेषता' के नाम से पुकारी जानेवाली चित की एक अवस्था है। [ असम्प्रज्ञात समाधि का लक्षण करते हुए ] यह कहा गया है-'विराम-प्रत्यय का अभ्यास करने के बाद [ जब ऐसा वृत्ति-निरोध हो कि केवल ] संस्कार ही शेष रह जाय तब उसे असम्प्रज्ञात ( सम्प्रज्ञात से भिन्न, दूसरा ) समाधि कहते हैं।' (यो० सू० ११८ ) [ तत्त्वज्ञान की जहाँ पर सीमा हो, वह विराम-प्रत्यय है । ज्ञान में एक अलंबुद्धि उत्पन्न होती है कि अब वृत्ति का विराम हो जाय । इस अवस्था में वृत्ति का संस्कार शेष रहता है जिससे वह फिर से उठ सके। वृत्ति स्वयं नहीं रहती। मोक्ष की दशा में तो चित्त का अत्यन्त ही विलयन हो जाता है।] इस प्रकार जो पुरुष श्रेष्ठ ( योगी ) सभी तरफ से विरक्त हो जाता है उसके बीज जले हुए धान के बीजों की तरह हो जाते हैं, वे पुनः उत्पादन की शक्ति से रहित होकर मन (चित्त ) के साथ ही साथ समाप्त हो जाते हैं । [ चित्त की वृत्तियों नष्ट हो जाती हैं, उनके साथ ही क्लेश के बीज भी।]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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