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________________ रामानुज-दर्शनम् १६९ ] यह अज्ञान भी है कि [ आप ज्ञान को दूसरी वस्तु अज्ञान के बाद सिद्ध करते हैं तो [ उसी हेतु से ( अप्रकाशित प्रपश्च को प्रकाणित करने के कारण ) ] की अपेक्षा रखेगा जो सिद्ध करना आपको अभीष्ट नहीं क्योंकि ऐसा अज्ञान से प्रपच का आवरण हो जाने पर संसार की ही सम्भावना मिट जायगी जो ] आपके सिद्धान्त के भी विरुद्ध है । ( अथवा इस दूसरे अज्ञान से आपके प्रस्तुत अनुमान का विषय- भावरूप अज्ञान – का भी आवरण हो जायगा और संसार की सिद्धि नहीं हो सकेगी । ) यदि आप [ भावरूप अज्ञान को या उसके साधक अनुमान को तथाकथित विशेषणों से युक्त किसी दूसरी वस्तु के पश्चात् ] सिद्ध नहीं करेंगे तो हेतु अनैकान्तिक ( व्यभिचारयुक्त ) हो जायगा । [ यहाँ हेतु है 'अप्रकाशितार्थ को प्रकाशित करने के कारण' । यह हेतु साध्यं ( MXjor term ) m) के विरोधी स्थानों में भी रहता है इसलिए अनैकान्तिक= अनिश्चित हैं ।] दूसरे, उपर्युक्त अनुमान में दृष्टान्त ( साध्य को ) सिद्ध करने की सामर्थ्य नहीं रखता क्योंकि वस्तुतः दीपक की प्रभा अप्रकाशित वस्तु को प्रकाशित नहीं करती, ज्ञान ही किसी वस्तु का प्रकाशन कर सकता है। दीपक के रहने पर भी ज्ञान से ही विषयों का का प्रकाशन सम्भव है । दर्शनेन्द्रिय ज्ञान उत्पन्न करती है, उसी समय प्रदीप - प्रभा ( सहाके रूप में) प्रकाश के विरोधी निविड़ अन्धकार को दूर करके थोड़ा-सा उपकार ही भरती अब अधिक विस्तार करना व्यर्थ है । एक दूसरे अज्ञान करने पर [ दूसरे (क. उपर्युक्त अनुमान का प्रत्यनुमान ) प्रतियो विवादाध्यासितमज्ञानं न ज्ञानमात्रब्रह्माश्रितम्; अज्ञानत्वात् शुक्तकाद्यज्ञानवदिति । मनु शुक्तिकाद्यज्ञानस्याश्रयस्य प्रत्यगर्थस्य ज्ञानमात्रस्वभावत्वमेव इति चेत्, मैवं शङ्किष्ठाः । अनुभूतिर्हि स्वसद्भावेनैव कस्यचिद्वस्तुनो व्यवहारानुगुणत्वापादनस्वभावो ज्ञानावगतिसंविदाद्यपरनामा सकर्मकोऽनुभवितुरात्मनो धर्मविशेषः । अनुभवितुरात्मत्वमात्मवृत्तिगुणविशेषस्य ज्ञानत्वमित्याश्रयणात् । इसका विरोधी अनुमान ( Counter-position ) इस प्रकार है - जिस अज्ञान के विषय में विवाद चल रहा है वह विशुद्धज्ञान के स्वरूप ब्रह्म में आश्रय नहीं ले सकता, क्योंकि वह अज्ञान है ( जब कि ब्रह्म ज्ञान है ) — जिस प्रकार शुक्ति सीपी, Nacre ) आदि के विषय में उत्पन्न अज्ञान [ ज्ञाता पर आश्रित है न कि ज्ञान पर ही, क्योंकि जीव ही ज्ञाता है; उसी प्रकार मायावादियों का वह भावरूप न कि ज्ञान पर । लेकिन मायावादी तो इस अज्ञान को हैं - यह उनका दोष है । ] [ यदि कोई शंका करे कि ] शुक्ति आदि के विषय में होनेवाले अज्ञान ( Illusion ) का आश्रय स्वचेतन ( आत्मा प्रत्यक् अर्थ ) है, उसका स्वभाव ही विशुद्ध ज्ञान है । अज्ञान ज्ञाता पर ही आश्रित है ज्ञानरूप ब्रह्म पर आश्रित मानते
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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