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________________ सांख्य-दर्शनम् ५५१ को हटाने की इच्छा ( करुणा ) नहीं मानी जा सकती [ और कैवल्य या मोक्ष नहीं होगा] । यदि दूसरा विकल्प मानते हैं कि सृष्टि के बाद करुणा से ईश्वर प्रवृत्त होता है तब तो अन्योन्याश्रयदोष ही हो जायगा। करुणा से सृष्टि होती है ( आपका अपना सिद्धान्त ) और सृष्टि होने पर करुणा होती है ( प्रसंग का आ जाना )। (११. प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध ) तस्मादचेतनास्यापि चेतनानधिष्ठितस्य प्रधानस्य महदादिरूपेण परिणामः पुरुषार्थप्रयुक्तः प्रधानपुरुषसंयोगनिमित्तः। यथा निर्व्यापारस्याप्ययस्कान्तस्य सन्निधानेन व्यापारस्तथा निर्व्यापारस्य पुरुषस्य सन्निधानेन प्रधानव्यापारो युज्यते। प्रकृतिपुरुषसम्बन्धश्च पङ्ग्वन्धवत् परस्परापेक्षानिबन्धनः । प्रकृतिहि भोग्यतया भोक्तारं पुरुषमपेक्षते । पुरुषोऽपि भेदाग्रहाद् बुद्धिच्छायापत्त्या तद्गतं दुःखत्रयं वारयमाणः कैवल्यमपेक्षते । तत्प्रकृतिपुरुषनिबन्धनं न च तदन्तरेण युक्तमिति कैवल्यार्थ पुरुषः प्रधानमपेक्षते। ___इसलिए अचेतन होने पर भी तथा किसी चेतन सत्ता का आश्रय न लेने पर भी प्रधान का परिणाम (विकार ) महत् आदि कर्मों के रूप में होता है जो पुरुष के लाभ के लिए उपयोगी एवं प्रधान और पुरुष के संयोग के लिए ही होता है। जैसे निष्क्रिय चुम्बक के भी सम्पर्क में आने से लोहे में क्रिया उत्पन्न होती है उसी प्रकार निष्क्रिय पुरुष के सम्पर्क से प्रधान में क्रिया उत्पन्न होना युक्तियुक्त है। प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध अन्धे और लंगड़े की तरह परस्पर अपेक्षा पर निर्भर करता है । चूंकि प्रकृति स्वयं भाग्य है इसलिए भोक्ता पुरुष की अपेक्षा रखती है। पुरुष भी, भेद का ज्ञान नहीं रहने से तथा [ अपने ऊपर ] बुद्धि का प्रतिबिम्ब पड़ जाने से, बुद्धिगत तीनों दुःखों को हटाते हुए मोक्ष चाहता है। [ बुद्धि प्रकृति का एक परिणाम है, किन्तु जब इसकी छाया पुरुष पर पड़ जाती है तब उससे अपना अन्तर न जानकर वह पुरुष बुद्धि में उत्पन्न सुख, दुःख आदि को अपना सुख, दुःख ही समझने लगता है । अत: उनके निवारण के लिए उसे मोक्ष की अपेक्षा रहती है। ] यह मोक्ष ( केवल्य ) प्रकृति और पुरुष [ के भेद-ज्ञान ] पर निर्भर करता है, उसके बिना यह नहीं हो सकता इसलिए कैवल्य की प्राप्ति के लिए पुरुष [ भेदज्ञान के लिए भेद के प्रतियोगी ] प्रधान की अपेक्षा रखता है। यथा खलु कौचित्पङ्ग्वन्धौ पथि सार्थेन गच्छन्ती देवकृतादुपप्लवात्परित्यक्तसाथौ मन्दमन्दमितस्ततः परिभ्रमन्ती भयाकुलो दैववशात्संयोगमुपगच्छेताम् । तत्र चान्धेन पङ्गुः स्कन्धमारोपितः। ततः पङ्गुदशितेन मार्गेणान्धः समीहितं स्थान प्राप्नोति, पङ्गुरपि स्कन्धाधिरूढः। तथा परस्परापेक्षप्रधानपुरुषनिबन्धनः सर्गः । यथोक्तम्
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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