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________________ शैव-दर्शनम् २८९ विशेष हैं । ये संख्या में सात करोड़ हैं तथा दूसरे जीवों पर दया भी करते हैं । ] तत्त्वप्रकाश में कहा गया है 'तीन प्रकार के पशु होते हैं, केवल विज्ञान, केवल प्रलय तथा सकल । उनमें पहला ( विज्ञानाकल ) मलयुक्त होता है, दूसरा ( प्रलयाकाल ) मल और कर्म से युक्त रहता है । सकल में मल, माया और कर्म होते हैं । उनमें प्रथम के दो भेद हैं-समाप्तकलुष और असमाप्तकलुष । प्रथम भेद में पड़नेवाले जीवों पर शिव कृपा करके विद्यश्वरों के आठ पद प्रदान करता है जब कि दूसरे भेद में आनेवाले जीवों को मन्त्रों का पद देता है जो संख्या में सात करोड़ हैं ।' सोमशम्भुनाप्यभिहितम् १९. विज्ञानाकलनामंको द्वितीयः प्रलयाकलः । तृतीयः सकलः शास्त्रेऽनुग्राह्यस्त्रिविधो मतः ॥ २०. तत्राद्यो मलमात्रेण युक्तोऽन्यो मलकर्मभिः । कलादिभूमिपर्यन्ततस्त्वैस्तु सकलो युतः ॥ इति । सोम-शम्भु ने भी ऐसा ही कहा है- 'एक विज्ञानाकल नाम का है दूसरा प्रलयाकल तीसरा सकल । शास्त्र में ये तीन प्रकार के अनुग्राह्य ( दया के पात्र, जीव ) माने गये हैं । उनमें प्रथम केवल मल से ही युक्त रहता है, दूसरा मल और कर्म से युक्त है तथा सकल कला से लेकर भूमि - पर्यन्त तत्त्वों ( सात कलाए, तीन अन्तःकरण, दस इन्द्रियाँ, शब्दादि पाँच तन्मात्र, आकाशादि भूमिपर्यन्त पांच तत्त्व = कुल ३० तत्त्व ) से युक्त रहता है।' ( ५ ख. प्रलयाकल जीव के दो भेद ) प्रलयाकोऽपि द्विविधः - पक्वपाशद्वयस्तद्विलक्षणश्च । तत्र प्रथमो मोक्षं प्राप्नोति । द्वितीयस्तु पुर्यष्टकयुतः कर्मवशान्नानाविधजन्मभाग्भवति । तदप्युक्तं तत्त्वप्रकाशे २१. प्रलयाकलेषु येषामपक्व मलकर्मणी व्रजन्त्येते । पुर्यष्टकदेहयुता योनिषु निखिलासु कर्मवशात् ।। इति । प्रलयाकल जीव भी दो प्रकार का होता है - जिसके दो पाश ( मल और कर्म ) परिपक्व हो गये हैं तथा जिसके दो पाश परिपक्व नहीं हुए | [ परिपक्व का अर्थ है जो अपने कार्य को करने में असमर्थ है। दो पाशों के परिपक्व हो जाने से भोग की भी हानि हो जाती है और जीव मुक्त होता है । ] इनमें पहले प्रकार का जीव मोक्ष प्राप्त करता है जब कि दूसरा पुर्यष्टक ( शरीर ) प्राप्त करके कर्म के वश में होकर नाना प्रकार के जन्म प्राप्त करता है । [ पुर्यष्टक से 'तीस तत्त्वों से बना हुआ है । वे तत्त्व हैं पांच महाभूत, पाँच तन्मात्र, पाँच ज्ञानेन्द्रियां, १९ स० सं० शरीर' अर्थ लिया जाता पाँच कर्मेन्द्रियाँ, सात
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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