SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५४ सर्वदर्शनसंग्रहे की जातियाँ सरित और सागर से क्रमश: ( Respectively ) समवेत होती हैं । यही कारण है कि इस विशेषण से उनकी व्यावृत्ति हो जाती है। यही नहीं, कूपत्व-तड़ागत्व आदि जातियों के लिए तो किसी में चारा नहीं- -न सरित् में, न सागर में। अब बचीं वे जातियाँ जो जलत्व को ही व्याप्त करती हैं, जैसे द्रव्यत्व और सत्ता । जिस समय 'ज्वलन से समवेत न होना' कहते हैं, उसी समय इनकी व्यावृत्ति हो जाती है, द्रव्यत्व भी ज्वलन से समवेत होता है, सत्ता भी ज्वलन से समवेत है, क्योंकि सत्ता या द्रव्यत्व में तेजस् या ज्वलन आता है, तो परम्परया या सीधे वह उक्त दोनों से भी समवेत ही है । जलत्व में ज्वलन नहीं होता, होता है तो समवाय रूप में नहीं । अग्निकणों का प्रवेश और निस्सरण क्षणिक है । ] तेजस्त्वं नाम चन्द्रचामीकरसमवेतत्वे सति सलिलासमवेतं सामान्यम् । वायुत्वं नाम त्वगिन्द्रियसमवेतद्रव्यत्वसाक्षाद्व्याप्यजातिः । आकाशकालदिशामेकैकत्वादपरजात्यभावे पारिभाषिक्यस्तिस्रः संज्ञा भवन्ति । आकाशं कालो दिगिति । तेजस्त्व - ऐसा सामान्य है जो चन्द्र और स्वर्ण ( चामीकर ) के साथ समवेत हो किन्तु जल से समबेत न हो । [ उपर्युक्त जलत्व की तरह इसकी भी व्याख्या होगी । तेजस्त्व और चन्द्र- चामीकर में समवाय-सम्बन्ध होता है, इस विशेषण के द्वारा तेजस्त्व से निरास होता है । पृथिवी से गन्ध का प्रवेश हो ) तो हो द्वारा व्याप्त होनेवाली चन्द्रत्व, क्योंकि चन्द्र चन्द्रत्व से समसमवेत हो सकता है, चन्द्रत्व व्यधिकरण में स्थित पृथिवीत्व, जलत्व आदि जातियों का चन्द्र या स्वर्ण का संयोग सम्बन्ध हो जाय ( यदि इनमें जाय, पर समवाय-सम्बन्ध सम्भव नहीं । पुनः तेजस्त्व के स्वर्णत्व आदि जातियों का भी निरसन इसी से होता है, वेत हो सकता है, स्वर्णत्व से नहीं । स्वर्ण भी स्वर्णत्व से से नहीं । दीपक बेचारा किसी से समवेत नहीं होगा । किन्तु तेजस् दोनों से एक ही साथ समवेत रहता है । तेजस्त्व जल से समवेत नहीं होता, इस विशेषण के द्वारा तेजस्त्व को ही व्याप्त करनेवाली जातियों- -जैसे सत्ता, द्रव्यत्व -- की व्यावृत्ति होती है । ये दोनों जातियाँ परम्परया या सीधे हो सलिल के साथ समवाय-सम्बन्ध रखती हैं। तेजस्त्व ( ज्वलनत्व ) का अस्थायी रूप में जल से सम्बन्ध होता है, समवाय नहीं । ] वायुत्व -- ऐसी जाति है जो त्वचा की इन्द्रिय ( स्पर्शेन्द्रिय ) से समवेत हो तथा द्रव्यत्व के द्वारा सीधे व्याप्त हो सके । [ वायु के साथ स्पर्शेन्द्रिय सम्बद्ध है । वायु के कारण १. यह ध्येय है कि वैशेषिकों की ये सारी परिभाषाएं निषेधात्मक हैं—दूसरों की व्यावृत्ति ही मुख्य ध्येय है, स्वरूप का प्रकाशन नहीं । दूसरे शब्दों में ये ऐसा भवन बनाते हैं जिसमें प्रतिरक्षा पर ही विशेष ध्यान रहता है, निवास की सुख-सुविधाओं पर नहीं । भय जो न कराये ! कोई चढ़ाई कर दे तो ? उस समय सारी सुविधाएं व्यर्थ हो जायेंगी ।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy