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________________ शांकर-वर्शनम् ___७१९ जिसका जैसा अनुभव होता है वह पदार्थ वैसा ही है । उसका दूसरे रूप में होना तो किसी बलवान् बाधक के उपादान ( Introduction ) से ही सिद्ध होता है, यह बात दोनों वादियों को (विज्ञानवादी और वेदान्ती को भी ) मान्य है। [ किसी को पानी गर्म लगा तो यह उष्णता जल की नहीं है, अग्नि की ही है--यह सिद्ध होता है । अन्वय-व्यतिरेक से जल में शीललता और अग्नि में उष्णता को सिद्धि होती है । जहाँ इस तरह का कोई बाधक न हो वहाँ तो अनुभव के अनुसार ही वस्तु का निर्णय करना चाहिए । ] 'नेदं रजतम' में जो रजत शब्द है उसे 'इदम्' के अर्थ से निषिद्ध कर दिया गया है । [नन का अर्थ है निषेध ! उसका सम्बन्ध इदं के साथ है, रजत के साथ नहीं अर्थात रजत का इदभाव से कोई मतलब नहीं रहा। रजत है ही, परन्तु 'नेदम्' कहने से उसके बाहर दिखाई देने की बात रुक गई। इस तरह ] अर्थ से ही सिद्ध हुआ कि वह ( रजत ) आन्तरिक ज्ञान ( या विज्ञान ) के रूप में अवस्थित है । ऐसा नहीं कहना चाहिए कि 'इदम्' के रूप में निषेध हो जाने से 'नेदम्' के रूप में बहिर्जगत् से भी तो 'रजत के होने की व्यवस्था सिद्ध की जा सकती है, फिर आप इसे केवल संविद् या विज्ञान के आकार में ही कैसे मानते हैं ? । ऐसा इसलिए नहीं कहें क्योंकि [ नेदं कहने से रजत को बाह्य-जगत् में व्यवस्थित करने के समय आपत्ति होगी कि रजत तो ] व्यवहित या दूर हो गया, वह अपरोक्ष (प्रत्यक्ष ) के रूप में नहीं माना जा सकता इसलिए उसे प्रत्यक्ष (आन्तर रूप से) विज्ञान ही मानना पड़ेगा। इसके लिए अनुमान का प्रयोग भी है - (१) विवादास्पद ( प्रस्तुत रजत ) विज्ञान के आकार में है। (प्रतिज्ञा । ( २ ) क्योंकि बाह्येन्द्रियों के सन्निकर्ष से रहित होकर यह प्रत्यक्ष है। (हेतु) ( ३ ) जैसे विज्ञान होता है । ( उदाहरण ) तदनुपपन्नम् । विकल्पासहत्वात् । बाधकोऽवबोधः किं साक्षाज्ञानाकारतां बोधयत्यर्थाद्वा ? नाद्यः । नेदं रजतमिति प्रत्ययस्य रजतविवेकमात्रगोचरस्य ज्ञानाभेदगोचरतायामनुभवविरोधात् । नेदं रजतमिति रजतस्य पुरोवर्तित्वप्रतिषेधो ज्ञानाकारतां कल्पयतीति चेत्-तदेतद्वार्तम् । प्रसक्तप्रतिषेधात्मनो बाधकावबोधस्य तत्रैव सत्त्वात्प्रतिषेधोपपत्तेः। विज्ञानाकारत्वसाधनमप्यविज्ञानाकारे बहिष्ठे साक्षिप्रत्यक्षे भावरूपाज्ञाने वर्तत इति सव्यभिचारः। १. जो चांदी यहाँ पर नहीं है तो कहीं घर में पेटी में रखी तो हो सकती है ? यहाँ नहीं होने से बिल्कुल आन्तर विज्ञान में ही है, इसका क्या प्रमाण ? कहीं भी बाह्य जगत में हो सकती है।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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