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औलूक्य-दर्शनम्
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पृथक्त्व की अभिव्यक्ति नहीं होती । जब कोई वस्तु व्यंग्य नहीं है, तो जन्य होगी । निष्कर्ष यह हुआ कि अपेक्षाबुद्धि से द्वित्व आदि की उत्पत्ति होती है ।
( ९ ख. द्वित्व की निवृत्तिका क्रम )
निवृत्तिक्रमो निरूप्यते - अपेक्षाबुद्धित एकत्वसामान्यज्ञानस्य द्वित्वोत्पत्तिसमकालं निवत्तिः । अपेक्षा बुद्ध द्वित्व सामान्यज्ञानाद् द्वित्वगुणबुद्धिसमसमयम् । द्वित्वस्यापेक्षा बुद्धिनिवृत्तेर्द्रव्यबुद्धिसमकालम् । गुणबुद्धेर्ब्रव्यबुद्धितः संस्कारोत्पत्तिसमकालम् । द्रव्यबुद्धेस्तवनन्तरं संस्कारादिति ।
अब द्वित्व की निवृत्ति का क्रम निरूपित किया जाता है । [ तृतीय क्षण में उत्पन्न होनेवाली ] अपेक्षाबुद्धि से जो [ चतुर्थ क्षण में ] द्वित्व की उत्पत्ति होती है उसी के साथ-साथ [ द्वितीय क्षण में उत्पन्न हुए ] एकत्व के सामान्य के ज्ञान की निवृत्ति ( विनाश ) हो जाती है ( अर्थात् अपेक्षाबुद्धि एक ओर द्वित्व की उत्पत्ति करती है और दूसरी ओर एकत्व-जाति के ज्ञान का विनाश करती है | )
[ पंचम क्षण में उत्पन्न होने वाली ] द्वित्वत्व की जाति के ज्ञान से जब [ षष्ठ क्षण में ] द्वित्व संख्या का ज्ञान उत्पन्न होता है ठीक उसी समय [ तृतीय क्षण में उत्पन्न हुई ] अपेक्षाबुद्धि का विनाश हो जाता है । अपेक्षाबुद्धि के विनाश ( षष्ठ क्षण ) के बाद [ सप्तम क्षण में ] जो 'ये दो द्रव्य हैं' ऐसा ज्ञान होता है उसी के साथ द्वित्व-संख्या का विनाश होता है ( क्योंकि द्वित्व संख्या के कारणस्वरूप अपेक्षाबुद्धि का विनाश इसके पूर्व ही हो चुका रहता है ) । द्रव्य का ज्ञान हो जाने ( सप्तम क्षण ) के बाद जब [ अष्टम क्षण में ] संस्कार की उत्पत्ति होती है ठीक उसी समय द्वित्व-संख्या के ज्ञान का भी विनाश हो जाता है । इसके बाद [ अष्टम क्षण में उत्पन्न ] संस्कार के बाद ( = नवें क्षण में ) दो द्रव्यों का ज्ञान भी नष्ट हो जाता है । ( इस प्रकार द्वित्वादि का क्रमशः विनाश होता है । ] तथा च संग्रहश्लोकाः
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५. आदावपेक्षा बुद्धघा हि नश्येदेकत्वजातिधीः । द्वित्वोदयसमं पश्चात् सा च तज्जातिबुद्धितः ॥ ६. द्वित्वाख्यगुणधीकाले, ततो द्वित्वं निवर्तते । अपेक्षा बुद्धिनाशेन द्रव्यधीजन्मकालतः ॥
७. गुणबुद्धि द्रव्यबुद्धघा
संस्कारोत्पत्तिकालतः ।
द्रव्यबुद्धिश्व संस्काराविति नाशक्रमो मतः ॥ इति ।
उपर्युक्त बातों का संग्रह इन श्लोकों में हुआ है- " सबसे पहले अपेक्षा बुद्धि से द्वित्व की उत्पत्ति होने के साथ-ही-साथ एकत्व-जाति का ज्ञान नष्ट हो जाता है। उसके बाद उस द्वित्व की जाति ( अर्थात् द्वित्वस्व ) के ज्ञान से जिस समय द्वित्व नामक गुण ( संख्या )