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________________ ( ३६ ) उपाधि से युक्त होकर साक्षी कहलाता है जो कुछ दिखाई पड़ रहा है वह दृश्य पदार्थ है । उसके तीन भेद हैं-अव्याकृत, मूर्त और अमूर्त। अव्याकृत का अर्थ है- अविद्या, अविद्या के साथ चित का सम्बन्ध, उनमें चित् की प्रतीति और जीवेश्वर का भेद । 'अमूर्त' शब्द से शब्द, स्पर्श आदि सूक्ष्म भूत और अन्धकार लिये जाते हैं क्योंकि ये अविद्या से उत्पन्न हैं । ये अमूर्त अवस्था में ही सात्त्विक अंश से ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति करते हैं और राजस अंश से कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति करते हैं । सबों के सात्त्विकांश मिलकर मन की और राजसांश मिलकर प्राण की उत्पत्ति करते हैं । तब इन भूतों ( Elements ) का आपस में मिश्रण अर्थात् पचीकरण होता है जिससे यह भौतिक संसार प्रतीत होता है । इस प्रकार इन तत्त्वों का निरूपण किया जाता है । मूल तत्त्वों को जानने से मोक्ष की प्राप्ति होती है और मूल तत्त्वोंके विकृत रूपों को जानकर उनमें लिपटे रहने से प्राणी बन्धन में पड़ा रहता है । बन्धन के विषय में जानना चाहिए कि संसार में सबों को सुख-दुःख और मोह का अनुभव होता है । यही बन्धन है । सांख्य और योग वाले कहते हैं कि यह अनुभव वस्तुनिष्ठ है जबकि वेदान्ती इसे आत्मनिष्ठ मानते हैं क्योंकि सुख आदि मन की वृत्तियाँ हैं जो पहले के संस्कार के कारण विभिन्न पदार्थों के ज्ञान से जैसे-जैसे उत्पन्न होती हैं तथा नष्ट होती हैं । मोक्ष के विषय में भी दार्शनिकों का मतभेद ही है । चार्वाक स्वतन्त्रता या देह - नाश को ही मोक्ष कहते हैं । शून्यवादी आत्मा का उच्छेद होना मोक्ष मानते हैं । दूसरे बौद्धों का कथन है कि निर्मल ज्ञान की उत्पत्ति ही मोक्ष है । जैन- सम्प्रदाय वाले कहते हैं कि कर्म से उत्पन्न देह में जब आवरण न हो तो जीव का निरन्तर ऊपर उठते जाना ही मोक्ष है । रामानुज सम्प्रदाय में ईश्वर के गुणों की प्राप्ति और उनके स्वरूप का अनुभव करना मोक्ष है । द्वैत वेदान्त में दुःख से भिन्न पूर्ण सुख की प्राप्ति ही मोक्ष है । इस अवस्था में भगवान् के केवल तीन गुण नहीं मिलते, संसार का कर्त्ता होना, लक्ष्मी का पति होना और श्रीवत्स की प्राप्ति नहीं तो मोक्षावस्था में जीव को सब कुछ मिल जाता है । पाशुपत - दर्शन में परमेश्वर बन जाना, शैव दर्शन में शिव हो जाना तथा प्रत्यभिज्ञा में आत्मा की प्राप्ति को मोक्ष माना गया है । रसेश्वर दर्शन कहता है कि रस से सेवन के देह का स्थिर हो जाना, जीत का मुक्त हो जाना मुक्ति है । न्याय-वैशेषिक मोक्ष को प्रायः अभावात्मक शब्दों में लेते हैं । वैशेषिक कहते हैं कि सारे विशेष गुणों का नाश हो जाना मोक्ष है जबकि नैयायिक आत्यन्तिक दु. निवृत्ति को मोक्ष मानते हैं । यह दूसरी बात है कि कुछ नैयायिक न केवल दुःख - निवृत्ति को, प्रत्युत सुख को भी मोक्ष में ही लेते हैं । मीमांसकों के
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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