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________________ ( ४० ) यहाँ विविध वैदिक कर्मों के द्वारा स्वर्ग आदि की प्राप्ति ही मोक्ष है । वैयाकरणों की धारणा है कि मूलचक्र में स्थित परा नामक ब्रह्मरूपिणी वाणी का दर्शन कर लेना ही मोक्ष है । सांख्य दर्शन में प्रकृति के उपरत हो जाने पर पुरुष का अपने रूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष माना गया है। उधर अपना काम पूरा करके सत्त्वं, रजस् और तमस्, ये तीनों गुण भी मूलप्रकृति में अत्यान्तिक रूप से विलीन हो जाते हैं और प्रकृति को भी मोक्ष मिलता है । योगदर्शन मानता है कि चित्-शक्ति निरुपाधिक रूप से अपने आप में स्थित हो जाती है तो मोक्ष होता है । अन्त में अद्वैत वेदान्त में शंकराचार्य का कहना है कि मूल अज्ञान के नष्ट हो जाने पर अपने स्वरूप की प्राप्ति अर्थात् आत्मसाक्षात्कार ही मोक्ष है । इस प्रकार दर्शनों में अन्तिम तत्त्व ( पुरुषार्य ) मोक्ष का सम्यक् निरुपण किया गया है । यहाँ केवल दिशा-निर्देश अथवा पाठकों की रुचि उत्पन्न करने के लिये सारांश दिया गया है । अपनी अंग्रेजी - भूमिका में दर्शनों के तारतम्य का संक्षिप्त विवरण मैंने दिया है । अतः यहाँ पर पुनरुक्ति से बचने के लिए केवल यही प्रतिपादित करना लक्ष्य है कि माधवाचार्य का उक्त दर्शन-संग्रह लिखने का क्या लक्ष्य है ? यह सर्वमान्य सत्य है कि माधवाचार्य का अपना दर्शन अद्वैत वेदान्त ही था । इसी की स्थापना के लिए उन्होंने अन्य दर्शनों को भी यथार्थ रूप में रखकर उनकी अपेक्षा शांकर - दर्शन को प्रधानता दी है । यह हम प्रत्येक दर्शन के आरम्भ में देखते हैं कि विगत दर्शन का खण्डन करके किसी दर्शन की नींव रखते । इस तरह क्रमशः दर्शनों की मान्यता वे बढ़ाते चलते हैं । - दूसरे दर्शन-ग्रन्थों में सर्वदर्शन संग्रह की तरह क्रम नहीं रखा गया है । प्रायः लोग नास्तिक दर्शनों के बाद क्रमशः आस्तिक दर्शनों का विचार करते हैं । कारण यहीं होता है कि उन्हें किसी दर्शन से कुछ लेना-देना नहीं है पर माधवाचार्य को तो अपने लक्ष्य की सिद्धि करनी थी अतः उन्होंने एक विशेष क्रम का निर्वाह किया है । अद्वैत वेदान्त भारतवर्ष का सबसे अधिक मान्य दर्शन है । माधवाचार्य इसीलिए इसे सब दर्शनों का शिरोमणि मानते हैं और उस पर उन्होंने बहुत अधिक विचार किया है । इस पर उठाई गई सारी आपत्तियों का पाण्डित्यपूर्ण समाधान तो किया ही है, मूल पदार्थों के विवेचन को तिलांजलि देकर भी उसके सिद्धान्तों की स्थापना की । अतः सर्वदर्शनसंग्रह को न केवल दर्शनों का संक न समझें प्रच्युत एक प्रबन्ध ग्रन्थ ( Thesis ) के रूपमें ले सकते हैं जिसमें अद्वैतमत की प्रतिष्ठा की गई है । यह बहुत आवश्यक था कि अद्वैत की स्थापना उस
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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