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शांकर-वर्शनम्
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पाया ही जाता है तो ज्ञाप्य होने के कारण [ इस दूसरे ज्ञान - - घट-विषयक ज्ञान को ] भी दूसरे ज्ञापक की अपेक्षा होगी और अन्त में अनवस्थादोष ही साथ लगेगा । [ तात्पर्य यह है कि आप एक विज्ञान से घट ज्ञान ( दूसरा ज्ञान ) मानते हैं । इस द्वितीय ज्ञान का शक्य अर्थात् घटादि पदार्थ ) कार्य नहीं है, ज्ञाप्य ही है । जब ज्ञाप्य है तब इस द्वितीय ज्ञान का भी कोई ज्ञापक होगा ही । ज्ञापक = ज्ञानोत्पादक । अतः इस द्वितीय ज्ञान से तृतीय ज्ञान की उत्पत्ति मानें - उसका भी कोई ज्ञापक होगा, फिर उसका ज्ञाप्य । यह स्थिति अनन्त काल तक चलेगी |
अथैतद्दोषपरिजिहीर्षया विज्ञानं सद्रूपमेवासतः प्रकाशकमिति कक्षोक्रियत इति चेत्-अत्र देवानांप्रियः प्रष्टव्यः पुनः । असौ सदसतोः सम्बन्धो निरूपयनिरूपकभावोऽविनाभावो वा ?
नाद्यः । असत उपकाराधारत्वायोगेनानुपकृ ततया निरूप्यत्वानुपपत्तेः । न चरमः । धूमधूमध्वज योरिव तदुत्पत्तिलक्षणस्य, शिशपावृक्षयोरिव तादात्म्यलक्षणस्य वा, अविनाभाव निदानस्य सदसतोरसम्भवात् । तस्माद्विज्ञानमेवासत्प्रकाशकम् - इत्यसद्वादिनामयमसत्प्रलाप इत्यारोप्यमाणं नासत् ।
अब यदि उक्त ( अनवस्था ) दोष का परिहार करने की इच्छा से ये स्वीकार करें कि विज्ञान सत् के रूप में होते हुए भी असत् का प्रकाशक है तो उस मूर्खाधिराज से पूछना चाहिए । [ यह प्रत्युत्तर जो दोष के परिहार के रूप में दिया जा रहा है वह न तो पूर्णतः माध्यमिक-मत की ओर से दिया जा रहा है क्योंकि माध्यमिक-मत में विज्ञान को भी असत् मानते हैं जब कि यहाँ विज्ञान को सद्रूप माना गया है । न यह प्रत्युत्तर पूर्णतः विज्ञानवादियों की ओर से दिया गया है क्योंकि वे बाह्य घटादि पदार्थों को ज्ञानस्वरूप मानते हैं और यहां वेसा किया नहीं गया है । अतः शंका करनेवाले 'आधा तीतर आधा बटेर' या अर्धजरतीय ( आधा बूढ़ा आधा जवान ) के न्याय से प्रत्युत्तर देते हैं । यही कारण है कि माधवाचार्य उनके लिए 'देवानां प्रिय:' ( मूर्ख ) का प्रयोग करते हैं । ] अच्छा कहिएसत् और असत् के बीच उपर्युक्त सम्बन्ध किस रूप में है, निरूप्य तथा निरूपक के रूप में या अविनाभाव ( Invariable relation ) के रूप में ?
इनमें पहला विकल्प ठीक नहीं है क्योंकि असत् पदार्थ ( घट आदि ) उपकार ( सामर्थ्य- विशेष, अतिशय ) का आधार नहीं हो सकता और जब तक उसमें निरूपक ( विज्ञान ) के द्वारा अतिशय का आधान ( = उसे उपकृत ) नहीं किया जाता तब तक यह निरूप्य बन ही नहीं सकता । [ चूंकि असत् वस्तु किसी का आश्रय नहीं हो सकती अतः उसमें सामर्थ्य का आधान करना सम्भव ही नहीं है । ]
दूसरा विकल्प [ कि व्याप्ति के बल से विज्ञान घटादि का ज्ञापक है ] भी ठीक नहीं क्योंकि [ बौद्धों के द्वारा स्वीकृत अविनाभाव के दो ही कारण हैं—तदुत्पत्ति और तादा