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________________ ६७४ सर्वदर्शनसंग्रहेसम्भवविवक्षया प्रवृत्तानि । विषयत्वबोधकानि तु वृत्तिजन्यावरणभङ्गलक्षणफलसम्भवविवक्षया। तदुक्तं भगवद्भिः६. अनाधेयफलत्वेन श्रुतेब्रह्म न गोचरः । प्रमेयं प्रमितौ तु स्यादात्माकारसमर्पणात् ॥ इति । ७. न प्रकाश्यं प्रमाणेन प्रकाशो ब्रह्मणः स्वयम् । तज्जन्यावृतिभङ्गत्वात्प्रमेयमिति गीयते ॥ इति च । [ अब सभी प्रकार के श्रुति-वाक्यों में एकवाक्यता का प्रदर्शन करने का प्रयास करते हैं- ] श्रुतियों में जो वाक्य ब्रह्म को ज्ञान का विषय नही मानते वे इस विचार से प्रवृत्त हुए हैं कि उन वाक्यों से उत्पन्न वृत्ति ( ज्ञान ) से व्यक्त होनेवाला स्फुरण ( ज्ञान में अपने आकार का समर्पण ) रूपी फल प्राप्त होना असम्भव है । दूसरी ओर जो वाक्य ब्रह्म को ज्ञान का विषय मानते हैं वे इस विचार से प्रवृत्त होते हैं कि उक्त वृत्ति ( वाक्यजन्य ज्ञान ) से उत्पन्न आवरण-भंग ( अज्ञान-नाश ) रूपी फल प्राप्त होना सम्भव है। जब किसी प्रकार का ज्ञान होता है तो उसके दो फल हैं-आवरणभङ्ग और स्फुरण । प्रक्रिया यह है कि अन्तःकरण बुद्धि के रूप में आकर, अपने अन्तर्गत चिदाभास को लेकर किसी विषय को व्याप्त करता है । बुद्धि की व्याप्ति से अज्ञान का नाश ( आवरणभङ्ग ) होता है तथा चिदाभास की व्याप्ति से विषय ( घटादि ) का स्फुरण ( प्रकाशन ) होता है। बुद्धि अचेतन होने के कारण स्वयं घटादि का प्रकाशन नहीं कर सकती । घटादि ज्ञान की यही विधि है ।' अब ऊपर कहा गया है कि श्रुतियाँ ब्रह्म की ज्ञानगोचरता का विधान भी करती हैं, निषेध भी, निषेध इसलिए करती हैं कि स्फूरण अर्थात् ज्ञान में ब्रह्म के आकार का समर्पण सम्भव नहीं है । अज्ञान का नाश होने पर आत्मा अपने आप स्फुरित होती है। यही कारण है, स्फुरण वाक्य से उत्पन्न ज्ञान का फल नहीं हो सकता । चिदाभास की व्याप्ति से आत्मा का स्फुरण नहीं होता। इसलिए 'यतो वाचो निवर्तन्ते' आदि वाक्य हैं। दूसरी ओर, कुछ वाक्यों में ब्रह्म को ज्ञानगोचर माना गया है । वह इसलिए कि ज्ञान का पहला फल जो अज्ञाननाश है, वह तो सम्भव है न ? अज्ञान-नाश बुद्धि को व्याप्ति से ही होती है इसलिए उसकी सम्भावना में कोई आपत्ति नहीं । फलतः दोनों प्रकार की श्रुतियों का समन्वय ( Reconciliation ) होता है। ___ इसे बड़े-बड़े आचार्यों ने कहा है - 'ब्रह्म श्रुति का विषय इसलिए नहीं बन सकता क्योंकि [ ब्रह्म पर स्फुरणरूपी ] फल का आरोपण ( उत्पादन ) [ श्रुति ] नहीं कर सकती । [ब्रहा तो स्वयं स्फुरित होता है। श्रुति उस पर स्फुरणरूपी फल का उत्पादन १. देखिये-पंचदशी, (७.९१ ) बुद्धि तत्स्थचिदाभासौ द्वावपि व्याप्नुतो घटम् । तत्राज्ञानं धिया नश्येदाभासेन घट: स्फुरेत् ॥
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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