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________________ शांकर-दर्शनम् ६७५ नहीं कर सकती । ब्रह्म ] प्रमेय तभी हो सकता है जब वह ज्ञान पर अपने आकार का समर्पण करे । [ जैसे घट का स्फुरण, चिदाभास के द्वारा, अपने आकार का समर्पण ज्ञान पर करने से होता है, उस प्रकार से ब्रह्म का स्फुरण नहीं होता । ब्रह्म अज्ञान - नाश के बाद स्वयं प्रकाशित होता है । ] ॥ ६ ॥ 'ब्रह्म प्रमाण से प्रकाशित नहीं होता क्योंकि उसका प्रकाश अपने आप होता है । [ सत्य इतना ही है कि प्रमाण से ] आवृति ( अज्ञान, आवरण ) का नाश होता है [ और आवरणभंग से ब्रह्म का स्फुरण होता है ] इसलिए ब्रह्म प्रमेय कहलाता है ॥ ७ ॥ - विशेष – जिस स्थान पर ब्रह्म को ज्ञेय कहा गया है वहाँ यह समझें कि अज्ञान - नाश की सम्भावना की दृष्टि से विचार किया गया है, क्योंकि अज्ञान - नाश भी ज्ञान ही है । जहाँ परब्रह्म को अज्ञेय कहा गया है वहाँ यह समझें कि स्फुरण की असम्भावना का दृष्टिकोण है । स्कुरण ज्ञान का अन्तिम फल है । स्फुरण की असम्भावना का अर्थ है कि किसी प्रमाण के द्वारा स्फुरण नहीं होना । वस्तुस्थिति के अनुसार ब्रह्म का स्फुरण अपने आप होता है । इस प्रकार शंकराचार्य ने पाण्डित्य का प्रदर्शन तथा अपनी अतुल मेधाशक्ति का परिचय देते हुए श्रुति पर आपोषित ब्रह्मशास्त्रीय विप्रतिपत्तियों का निराकरण किया है । ( ९. क. सिद्ध अर्थ का बोधक होने से वेद अप्रमाण - पूर्वपक्ष ) ननु स्यादेष मनोरथो यदि सिद्धेऽर्थे वेदस्य प्रामाण्यं सिध्येत् । संगतिग्रहणायत्तत्वात् प्रामाण्यनिश्चयस्य । संगतिग्रहणस्य च वृद्धव्यवहारायत्तत्वात् । वृद्धव्यवहारस्य च लोके कार्यैकनियतत्वात् । न ह्यस्ति सम्भवः शब्दानां कार्येऽर्थे संगतिग्रहः सिद्धार्थाभिधायकत्वं तत्र वा प्रामाण्यमिति । न हि तुरङ्गत्वे गृहीतसंगतिकं तुरङ्गपदं गोत्वमाचष्टे तत्र वा प्रामाण्यं भजते । तस्मात्कार्य गृहीतसंगतिकानां शब्दानां कार्य एव प्रामाण्यम् । [ मीमांसकों की ओर से शंका हो रही है कि आपका ] यह मनोरथ ( समन्वय करनेवाला ) तभी पूर्ण हो सकता है यदि सिद्ध अर्थ ( Established truth ) का प्रतिपादन करने पर भी वेद की प्रामाणिकता सिद्ध हो जाय । कारण यह है कि प्रामाणिकता का निश्चय संगति ( शब्द और अर्थ का सम्बन्ध ) के ग्रहण करने पर निर्भर है । [ जब तक शब्दार्थ सम्बन्ध न समझें तब तक किसी वाक्य को प्रमाण नहीं मान सकते । ] संगति का ग्रहण भी वृद्ध व्यवहार पर निर्भर करता है । लौकिक दृष्टि से वृद्ध-व्यवहार एकमात्र कार्य से ही सम्बद्ध रहता है । [ कार्य = जिसे करना चाहिए, कर्तव्य । बालक पहले-पहल वृद्धव्यवहार से ही शक्ति-ग्रहण करता है । व्यवहार का अर्थ है 'गामानय' ( गाय लाओ ) -- इस प्रकार के विधिवाक्यों के सुनने के बाद जो गाय लाने के रूप में प्रतीत होता है । गाय लाना एक कार्य है क्योंकि विधि बतलानेवाला प्रत्यय ( लोट् ) उसमें लगा है, उसके सुनने से कर्तव्य की भावना होती है । इस प्रकार बालक कार्यरूपी 'आनयन' ( Bringing ) के
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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