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________________ पूर्णप्रज्ञ-दर्शनम् इति वचनाद् द्वैतस्य कल्पितत्वमवगम्यत इति चेत्सत्यम् । भावमनभिसंधायाभिधानात् । तथा हि-यद्ययमुत्पद्येत तह निवर्तेत न संशयः । तस्मादनादिरेवायं प्रकृष्टः पञ्चविधो भेदप्रपञ्चः । न चायमविद्यमानः । मायामात्रत्वात् । मायेति भगवदिच्छोच्यते । २२९ कोई शंका कर भाव को सोचे [ माण्डूक्य कारिका ( अद्वैतग्रन्थ ) में कहा है कि ] यदि प्रपञ्च की सत्ता वास्तव में है तो वह नष्ट भी होगा, इसमें सन्देह नहीं । यह द्वैत ( Difference ) केवल माया है, वास्तव में तो अद्वेत ही सत्य है ( मा० का० १।१७ ) – इस वाक्य से सकता है कि द्वेत ( भेदवाद ) काल्पनिक है। हाँ, ठीक है, लेकिन बिना समझे कहने का यह फल है [ कि शंका दिखलायी पड़ती है । ] इसे समझने की चेष्टा करें - यदि यह ( प्रपक्ष ) उत्पन्न होता तभी इसका विनाश होता, इसमें सन्देह नहीं । इससे पता लगता है कि यह प्रकृष्ट भेद प्रपञ्च ( भेदात्मक संसार ) पाँच प्रकार का है । इसकी सत्ता नहीं है, ऐसी बात नहीं, क्योंकि यह मायामात्र है । माया का अर्थ है भगवान् की इच्छा। विशेष – माण्डूक्य कारिका को प्रथम पंक्ति से उस स्थान में यह अनुमान लगाया गया है कि प्रपञ्च माया है, काल्पनिक है, जब कि मध्व इससे दूसरा ही निष्कर्ष निकालते हैं कि यह प्रपञ्च अनादि है । यह माया अर्थात् ईश्वर की इच्छा ही है । महाभारततात्पर्य- निर्णय में कहा गया है statopogra पञ्चभेदांश्च विज्ञाय विष्णोः स्वाभेदमेव च । निर्दोषत्वं गुणोद्रेकं ज्ञात्वा मुक्तिर्न चान्यथा ॥ ( १1८२ ) । अब पौराणिक वाक्यों का उद्धरण देकर माया की व्याख्या की जायगी । १३. महामायेत्यविद्येति नियतिर्मोहिनीति च । प्रकृतिर्वासनेत्येव तवेच्छानन्त कथ्यते ॥ १४. प्रकृतिः प्रकुष्टकरणाद्वासना वासयेद्यतः ः । अ इत्युक्तो हरिस्तस्य मायाविद्येति संज्ञिता । १५. मायेत्युक्ता प्रकृष्टत्वात्प्रकृष्टे हि मयाभिधा । विष्णोः प्रज्ञप्तिरेवैका शब्दरेतैरुदीर्यते ॥ १६. प्रज्ञप्तिरूपो हि हरिः सा च स्वानन्दलक्षणा । इत्यादिवचननिचयप्रामाण्यबलात् । हे अनन्त ईश्वर ! आपकी इच्छा को ही महामाया, अविद्या, नियति, मोहिनी, प्रकृति और वासना भी कहते हैं ॥ १३ ॥ अधिक उत्पन्न होने के कारण इसे प्रकृति कहते हैं, विचारों को पैदा करने के कारण इसे वासना कहते हैं । 'अ' का अर्थ हरि है, उनकी माया ( इच्छा ) को अविद्या नाम देते हैं ।। १४ ।। प्रकृष्ट ( बड़ा ) होने के कारण इसे माया
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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