________________
नकुशील-पाशुपत-दर्शनम्
२६३ जो कुछ भी अस्वतन्त्र ( परतन्त्र ) है वह सब कार्य कहलाता है। वह तीन प्रकार का है-विद्या, कला और पशु। [जीव-जड़-वर्ग अपने-अपने गुणों के साथ कभी स्वतन्त्र नहीं है । गुण अपने-अपने आश्रयों के अधीन हैं, जड़पदार्थ जीवों के अधीन हैं । जीवों में भी एक दूसरे की पराधीनता देखी जाती है-स्त्री पति के अधीन, नौकर अपने स्वामी के अधीन, प्रजा राजा के अधीन आदि । परमेश्वर के अधीन तो सभी हैं । पाशुपत-दर्शन में जीवों को पशु कहते हैं, जीवों के गुणों को विद्या और गुणसहित पृथिवी आदि जड़द्रव्यों को कला कहते हैं । ] इन ( भेदों) के ज्ञान से संशय आदि की निवृत्ति होती है । इनमें पशुओं के गुण की विद्या ( Sentiency ) कहते हैं। इसके भी दो भेद हैं-बोधस्वभाव और अबोधस्वभाववाली विद्या ।
बोध स्वभाववाली या बोधात्मिका विद्या दो प्रकार की है, क्योंकि उसमें विवेक या अविवेक की प्रवृत्तियाँ होती हैं। इस बोधात्मिका विद्या को चित भी कहते हैं । चित्त के ही द्वारा सभी प्राणी बोधात्मक ( वस्तुओं का ज्ञान करानेवाले ) प्रकाश से अनुगृहीत (प्रकाशित ) सामान्य रूप से सभी वस्तुओं को जानता है ( चेतयते चित्र =जानना ), चाहे वे वस्तुएं विवेक प्रवृत्ति से पूर्ण हों या विवेक प्रवृत्ति से रहित । [ जीवों में विषय का ज्ञान करने के लिए जो प्रवृत्ति उत्पन्न होती है उसी के रूप में जीव में अवस्थित एक विशेष गुण का ही नाम चित्त है। यह चित्त-गुण स्वयं बोधात्मक होने के कारण घट, पट आदि पदार्थों का बोध कराता है। जैसे सूर्य या दीपक स्वयं प्रकाशात्मक होने के कारण वस्तुओं का बोध कराते हैं उसी प्रकार चित्त के साथ भी यही बात है। चित्त नाम की यह प्रवृत्ति कभी विवेक से युक्त होती है, कभी उससे रहित । अब इन दोनों की कृतियाँ व्यक्त होंगी।]
तत्र विवेकप्रवृत्तिः प्रमाणमात्रव्यङ्ग्या। पश्वर्थधर्मार्मिका पुनरबोधात्मिका विद्या । चेतनपरतन्त्रत्वे सत्यचेतना कला । सापि द्विविधाकार्याख्या कारणाख्या चेति । तत्र कार्याख्या दशविधा-पृथिव्यादीनि पञ्चतत्त्वानि, रूपादयः पञ्चगुणाश्चेति । कारणाख्या त्रयोदशविधा-ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं, कर्मेन्द्रियपञ्चकम्, अध्यवसायाभिमानसंकल्पाभिधवृत्तिभेदाद् बुद्ध्यहंकारमनोलक्षणमन्तःकरणत्रयं चेति ।
उनमें विवेक-प्रवृत्ति केवल प्रमाणों के ज्ञान से ही व्यक्त होती है । [ इसके अतिरिक्त जो सामान्य या विवेक से रहित प्रवृत्ति है वह अतीन्द्रिय होती है। वह अपने साध्य अर्थात् सामान्यज्ञानात्मक फल से व्यक्त होती है। चित बोधात्मक है तथा अपने बोधरूप स्वभाव से घटादि पदार्थों को ( जड़ होने पर भी इन्हें ) व्यक्त कर देता है। यह चित्त-गुण बोधात्मक है अतः ज्ञान का साधन बन सकता है।
अबोधात्मिक विद्या वह है जिसमें पशुत्व की प्राप्ति करानेवाले धर्म और अधर्म ये दोनों संस्कार रहें। [ यह भी जीव का एक विशिष्ट गुण ही है किन्तु इसका उपयोग ज्ञान में कुछ