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सर्वदर्शनसंग्रहेसम्बन्ध और सदैव प्रकाशित सिद्धि-ज्ञान को सर्वज्ञत्व कहते हैं। [ यह वैसा ज्ञान है जो सदा उदित या प्रकाशित रहता है, कभी छिपता नहीं। तत्त्वों के रूप में यह सदा बंधा हुआ रहता है । बातें बतलाई गई हों या नहीं, सभी सर्वज्ञ को मालूम हो जाती हैं, वह भी संक्षिप्त ( समास ) विस्तृत, विदिलष्ट (Analysed ) तथा विशिष्ट ( Specialised ) रूप में । ज्ञान-शक्ति की यहां पराकाष्ठा है । ] यह ( दृक्शवित ) ज्ञान (बुद्धि Intellect) की शक्ति है।
क्रियाशक्तिरेकापि विविधोपचर्यते-मनोजवित्वं कामरूपित्वं विकरणमित्वं चेति । तत्र निरतिशयशीघ्रकारित्वं मनोजवित्वम् । कर्मादिनिरपेक्षस्य स्वेच्छया एवानन्त-सलक्षण-विलक्षण-स्वरूप-करणाधिष्ठातृत्वं कामरूपित्वम् । उपसंहतकरणस्यापि निरतिशयश्वर्यसम्बन्धित्वं विकरणमित्वमिति । एषा क्रियाशक्तिः।
क्रियाशक्ति यद्यपि एक ही होती है, फिर भी परोक्षतः तीन प्रकार की कही जाती है-मन की तरह वेगवान होना, इच्छा से रूम बदलना तथा विकरण (इन्द्रियादिहीन ) होने पर भी ऐश्वर्य धारण करना (विकरणमित्व )। मन की तरह वेगवान् होने का अर्थ है कि इतनी शीघ्रता से काम करें जिससे अधिक शीघ्र और कोई न करे । कर्मफल आदि से निरपेक्ष ( पृथक ) होकर, केवल अपनी इच्छा से ही अनन्त सलक्षण ( समान धर्मोवाले ), विलक्षण ( विभिन्न लक्षणोंवाले ) लथा सरूप (एक तरह के ) करणों ( शरीरों और इन्द्रियों ) में अधिष्ठित होना ही कामरूपित्व ( अपनी इच्छा से रूप बदलना ) है । विकरणमित्व वह है जब करणों के न होने पर ( या संक्षिप्त होने पर ) भी सर्वोच्च (निरतिशय ) ऐश्वर्य से सम्बन्ध हो जाय । यह क्रिया की शक्ति है।
विशेष-अनात्मक दुःखान्त बिल्कुल निषेधात्मक ( Negative ) है, क्योंकि इसमें केवल दुःख की निवृत्ति ही होती है। दुःख की निवृत्ति के बाद ऐश्वर्य की प्राप्ति सात्मक दुःखान्त में होती है। ऐश्वर्य मिलने में भी दो प्रकार की शक्तियाँ मिलती हैं-दृक्शक्ति या जानने की शक्ति तथा क्रियाशक्ति या कार्य के रूप में दिखलाने की शक्ति । इनके क्रमशः पाँच और तीन भेद हैं । इस प्रकार दुःखान्त का निरूपण हुआ।
(४. कार्य का निरूपण ) अस्वतन्त्र सर्व कार्यम् । तत्त्रिविधं-विद्या कला पशुश्चेति । एतेषां ज्ञानात्संशयादिनिवृत्तिः । तत्र पशुगुणो विद्या। सापि द्विविधा-बोधाबोधस्वभावभेदात् । __ बोधस्वभावा विवेकाविवेकप्रवृत्तिभेदाद् द्विविधा। सा चित्तमित्युच्यते। चित्तेन हि सर्वः प्राणी बोधात्मकप्रकाशानुगृहीतं सामान्येन विवेचितमविवेचितं चार्थं चेतयत इति ।