SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नकुलीश-पाशुपत-दर्शनम् २६१ इनमें दुःखान्त दो प्रकार का होता है-अनात्मक और सात्मक । अनात्मक ( Impersonal ) दुःखान्त उसे . कहते हैं जिसमें सभी दुःखों का पूर्ण रूप से विनाश हो जाय [ इसके बाद ऐश्वर्य की प्राप्ति न हो ] । सात्मक ( Personal ) दुःखान्त वह है जिसमें दृक्शक्ति और क्रियाशक्ति से युक्त ( लक्षित) ऐश्वर्य की भी प्राप्ति हो। दृक्शक्ति ( बुद्धि या ज्ञान की शक्ति ) यद्यपि एक है किन्तु विषयों ( Objects ) की विभिन्नता के कारण पाँच प्रकार से व्यक्त की जाती है-दर्शन, श्रवण, मनन, विज्ञान (विवेचन ) और सर्वज्ञता । [ अब इनमें प्रत्येक की परिभाषा बतलाई जायगी।] तत्र सूक्ष्म-व्यवहित-विप्रकृष्टाशेष-चाक्षुष-स्पर्शादिविषयं ज्ञानं दर्शनम् । अशेषशब्दविषयं सिद्धिज्ञानं श्रवणम्। समस्तचिन्ताविषयं सिद्धिज्ञानं मननम् । निरवशेषशास्त्रविषयं ग्रन्थतोऽर्थतश्च सिद्धिज्ञानं विज्ञानम् । स्वशास्त्र येनोच्यते। उक्तानुक्ताशेषार्थेषु समासविस्तरविभागविशेषतश्च तत्त्वव्याप्तसदोदितसिद्धिज्ञानं सर्वज्ञत्वमिति । एषा धीशक्तिः । दर्शन-उस ज्ञान-शक्ति का नाम है जिसके द्वारा समस्त चाक्षुष विषयों ( नेत्रसम्बन्धी जैसे रूप और तदाश्रित द्रव्य ), स्पर्श-सम्बन्धी विषयों, [ रस-सम्बन्धी विषयों और घ्राण-सम्बन्धी विषयों ] का ज्ञान होता है चाहे वे विषय कितने ही सूक्ष्म हों (परमाणु आदि ) या किसी वस्तु के द्वारा व्यवहित ( Intervened ) हों या दूर पर स्थित हों। [बद्ध जीव सभी चाक्षुष, सार्शनादि विषयों को नहीं जान सकते, वे दूरस्थ, व्यवहित या सूक्ष्म पदार्थों को भी नहीं जान सकते, किन्तु मुक्त पुरुषों में यह ऐश्वर्यशक्ति आ जाती है कि वे ईश्वर की तरह इन सारे विषयों की जानकारी कर सकते हैं । ऐसी कोई वस्तु नहीं जिसे वे नहीं जान पाते । ] सभी शब्दों के विषय में ( सूक्ष्म, दूरस्थ या पशु-पक्षी आदि के द्वारा किये गए शब्द ) सिद्धि के रूप में उत्पन्न ज्ञान को श्रवण कहते हैं। [ यद्यपि श्रवण दर्शन में अन्तभूत हो सकता है पर तत्त्वज्ञान में इसकी विशेष उपयोगिता होने के कारण इसे पृथक रखा गया है। इसमें सिद्धि अर्थात् योगादि साधनों से उत्पन्न एक विशेष शक्ति के द्वारा ज्ञान होता है। ] जिन-जिन विषयों का चिन्तन सम्भव है उन सबों का केवल चिन्तन करते ही [ बिना शास्त्रादि देखते हुए ही ] योग की सिद्धि द्वारा ज्ञान पा लेना मनन ( Cogitation ) कहलाता है। सिद्धि के द्वारा सभी शास्त्रों के विषयों को ग्रन्थ (पंक्ति) और उसके अर्थ के साथ जान लेना विज्ञान है। [ ग्रन्थ में इस तरह की पंक्ति है और उसका यह अर्थ है, यह जान लेना विज्ञान है । ] इसी से अपने ( पाशुपत ) शास्त्र का प्रवचन होता है ( शास्त्र की असंदिग्ध व्याख्या में विज्ञान ही उपयोगी है)। [ गुरु के द्वारा ] उपदिष्ट या अनुपदिष्ट, सभी अर्था ( विपयों) में समास, विस्तर, विभाग और विशेष के द्वारा ( इनका वर्णन इसी दर्शन में बाद में होगा ) तत्त्व के रूप में
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy