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________________ जैमिनि-दर्शनम् ४५१ सन्तोष तब उक्त श्रीत ( वेदोक्त ) विधि की क्या गति होगी ? आप घबरायें नहीं, करें, [ अपूर्व का उत्पादन करके ] यह विधि स्वर्ग का फल देनेवाली है और यह केवल अक्षर-ग्रहण करने के लिए ही विहित है । [ यह अपूर्वविधि है क्योंकि इस विधि के बिना मालूम नहीं हो सकता कि अध्ययन स्वर्ग प्राप्ति कराता है । यह पूछ सकते हैं कि अध्ययनविधि में स्वर्ग प्राप्ति कहाँ दी हुई है कि आप इससे स्वर्ग - फल की उपलब्धि बोले चले जा रहे हैं ? ] यद्यपि अध्ययन - विधि ( = स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) में स्वर्ग-शब्द नहीं सुनाई पड़ता, परन्तु विश्वजित - न्याय से उसकी कल्पना की जा सकती है । जैसे जैमिनि ने अपने सूत्र - 'वह फल स्वर्ग ही है क्योंकि सबों के लिए यह एक समान है' ( ४|३|१५ ) में यह निश्चय किया है कि विश्वजित-याग में जिनका स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है वे लोग भी इसके अधिकारी हैं, पुनः युक्तिपूर्वक उन्होंने यह भी निर्णय किया है कि विश्वजितयाग का विशिष्ट फल स्वर्ग ही है, -अध्ययन विधि में भी यही बात क्यों न मान ली जाय ? [ सूत्र का अर्थ है कि स्वर्ग चूंकि दुःख से सर्वथा अस्पृष्ट और निरतिशय सुख का आगार है अत: विश्वजित - विधि ( विश्वजिता यजेत ) का भी कोई फल नहीं दिया गया है । जैमिनि सिद्ध करते हैं कि विश्वजित का फल स्वर्ग है क्योंकि सारे सकाम व्यक्ति इसकी ही कामना करते हैं । 'ज्योतिष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' जेसी स्पष्ट विधि है वेसी 'विश्वजिता यजेत' नहीं, क्योंकि इसमें किसी कर्ता का उल्लेख ही नहीं कि अमुक कामनावाला व्यक्ति इस ( विश्वजित्याग ) के द्वारा अपूर्व की भावना करे । तब इसका अधिकारी कौन हो ? इसीलिए कुछ फल की कल्पना करनी ही पड़ेगी और उसी फल की कामना रखनेवाला व्यक्ति इस याग का अधिकारी बनेगा । जब कल्पना ही पर चलना है तो ऐसा फल क्यों न चुनें जिसके लिए सभी उत्सुक हों । वह फल है स्वर्ग, जिसकी अभिलाषा सभी लोग करते हैं । इसी न्याय से अध्ययन - विधि के फल की कल्पना की जाय कि इसका फल भी स्वर्ग ही है । ] यही कहा भी गया है - 'चूंकि दृष्ट फल ( अर्थज्ञान ) की प्राप्ति - विधि ( स्वाध्यायोऽध्येतव्यः ) के बिना भी हो जाती है अतः यह विधि उस ( दृष्ट फल ) के लिए नहीं है है । विश्वजित न्याय से, विधि को सामर्थ्य से स्वर्ग की कल्पना करनी चाहिए ।' [ अध्ययन - विधि में इतनी सामर्थ्य है कि उससे स्वर्ग मिल सकता है अतः उसी फल के लिए अध्ययन - विधि है, अर्थज्ञान- रूपी दृष्ट फल के लिए नहीं । सारांश यह कि अर्थज्ञान विधिसम्मत नहीं है, अतः अर्थज्ञान में उपयोगी यह मीमांसाशास्त्र भी विधिसम्मत नहीं ही होगा । इसका आरम्भ नहीं ही करना चाहिए । इसे आगे स्पष्ट करके पूर्वपक्ष का उपसंहार करेंगे । ] एवं च सति वेदमधीत्य स्नायादिति स्मृतिरनुगृहीता भवति । अत्र हि वेदाध्ययनसमावर्तनयोरव्यवधानमवगम्यते । तावके मते त्वधीतेऽपि वेदे
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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