SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वदर्शनसंग्रहे पकुर्वन्ति न वा ? न चेन्नापेक्षणीयास्ते । अकिश्वित्कुर्वतां तेषां तादर्थ्यायोगात् । अथ भावस्तैः सहकारिभिः सहैव कार्यं करोति इति स्वभाव इति चेत् - अङ्ग ! तह सहकारिणो न जह्यात् । प्रत्युत पलायमानापि गले पाशेन बद्ध्वा कृत्यं कुर्यात् । स्वभावस्यानपायात् । ३८ फिर भी कोई कह सकता है -क्रम ( पूर्वापरता, आगे-पीछे होना ) से युक्त सहकारी क्रियाओं को स्वीकार करने पर भूत और भविव्यत्काल में, स्थायी या अ-क्षणिक पदार्थ का क्रम के द्वारा अर्थक्रियाकारी होना ( करण, कार्योत्पादन ) सिद्ध तो हो हो जाता है । [ अर्थ यह है कि अक्षणिक या स्थायी पदार्थ वही है जो तीनों कालों की क्रियाओं के उत्पादन में समर्थ हो तथा सदा एक ही तरह का हो। दूसरी ओर क्षणिक सत्ता एक क्षण में क्रिया उत्पन्न करके नष्ट हो जाती है, तीनों कालों में इसके रूप विभिन्न प्रकार के होते हैं । अस्तु, स्थायी एक रूप होने पर भी, जब जैसी सहकारी क्रियाएँ मिलती हैं कार्योत्पत्ति कर सकता है । इससे पदार्थों में होनेवाले परिवर्तनों की व्याख्या होने पर भी सत्ता को स्थायी मान लेते हैं । ऐसा मान लेने पर उपर्युक्त दोनों दोष - १. तब वैसी ही करके, उनके 7 सब समय सभी वस्तुओं का उत्पादन और २. कभी भी किसी क्रिया का उत्पादन नहीं करना -- मिट जायेंगे इस प्रकार कार्यों का क्रम सहकारी क्रियाओं के कार्यक्रम पर निर्भर करता है, न कि वस्तुओं की सामर्थ्य और असामर्थ्य पर । निष्कर्ष यह निकला कि सत्ता अक्षणिक स्थायी है जिसमें परिवर्तन सहकारी क्रियाओं के आने से होते हैं, विशेषतया उनके क्रम के कारण । अतः सत्ता क्षणिक नहीं, अक्षणिक है --- यह तर्क पूर्वपक्षियों का है, अब इसका उत्तर क्षणिकवादी क्या देते हैं, देखा जाय । ] अगर ऐसी बात है तो आपसे पूछा जाता है, उसे बतावें – सहकारी क्रियाएँ (या पदार्थ ) क्या भाव ( स्थायी ) का उपकार ( सहायता ) करती है कि नहीं ? [ आशय यह है कि पूर्वपक्षियों के मत जो घट, पट आदि के स्थायी पदार्थ हैं उनके सहकारी जल, मिट्टी, वायु आदि पदार्थ घटादि के निर्माण में सहायता करते हैं कि नहीं - आपलोग क्या कहते हैं ? ] यदि सहायता नहीं करते तो उनकी आवश्यकता ही नहीं है । वे ( सहकारी ) तो कुछ करते नहीं, इसलिए वे तदर्थ ( भाव की सहायता के लिए ) होंगे - ऐसा प्रसंग नहीं होगा ( अर्थात् क्रियाहीन सहकारी पदार्थ भाव की सहायता नहीं करते तो उनके रहने की जरूरत ही नहीं - सहकारी के बिना ही भाव को सत्ता होने का प्रबन्ध करना पड़ेगा ) 1 इस पक्ष में यदि एक और विकल्प दिया जाय कि स्थायी भाव ( घट, पट आदि ) उन परिवर्तनशील सहकारियों ( जल, मिट्टी, हवा, सूर्य की किरणें ) के साथ-साथ कार्य करता है इसलिए स्वभाव के रूप में सहकारियों को लिया जाय, [ तो क्या हानि है ? ] | यदि उपर्युक्त विकल्प के आधार कर स्थायी के स्वभाव के रूप में सहकारियों को ग्रहण
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy