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________________ बौद्ध-दर्शनम् यदि पहला पक्ष लेते हैं [ कि सामर्थ्य है ] तब भूत और भविष्यत् दोनों काल के कार्योत्पादनों (= अर्थक्रियाओं) को आप छोड़ नहीं सकते-ऐसी स्थिति आ जायगी (= एक समय में ही तीनों कालों के घटों के उत्पादन का प्रसंग हो जायगी, जो होता ही नहीं)। जो वस्तु किसी काम के करने में समर्थ होती है, वह तो कभी कालक्षेप ( समय काटना ) नहीं सहेगी [ तुरन्त कार्य-सम्पादन कर देगी, क्षेप का योग उसमें कहाँ ? ] इस प्रसंग या स्थिति का अनुमान हम यों कर सकते हैं----जो पदार्थ जिस काम को करने में जब भी समर्थ होता है, वह उसे उसी समय कर देता है जैसे—सामग्री ( कारण के ) विभिन्न सहायक तत्व ( Conditic.ns ) अपने कार्य को उत्पन्न कर देती है। और यह भाव ( अ-क्षणिक ) चूंकि समर्थ है [ इसलिए एक साथ ही भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों का कार्योत्पादन होने लगेगा-इस दोष से बचने के लिए पहले विकल्प को छोड़ देना ही अच्छा है ] । यदि दुसरा विकल्प ( स्थायी में भूत और वर्तमान अर्थक्रिया बतलाने की शक्ति नहीं है ) लेते हैं तब तो और भी आनन्द है कि ] कभी भी यह कुछ नहीं कर सकता। कारण यह है कि कार्योत्पादन केवल सामर्थ्य पर ही अवलम्बित है। (स्थायी पदार्थ यदि एक समय में असमर्थ हो गया तो दूसरे समय में भी असमर्थ हो रहेगा । दूसरे, असमर्थ वस्तु की अपेक्षा समर्थ वस्तु के स्वरूप में भेद करना आवश्यक हो जाता है, इससे वस्तु स्थायी नहीं रह सकती और मल पर ही कुठाराघात हो जायगा । ) जो पदार्थ किसी भी समय किसी काम को नहीं करता, वह उसके लिए असमर्थ समझा जाता है, जैसे--अंकुर को उगाने में चट्टान। और यह ( भाव = स्थायी पदार्थ ) वर्तमान क्रिया उत्पन्न करने के समय विगत और अनागत अर्थक्रियाओं को उत्पन्न नहीं करता—इस प्रकार का विपर्यय या विरोध होता है। विशेष-१. यदि स्थायी पदार्थ वर्तमान अर्थक्रिया के समय भूत और भविष्य की अर्थक्रियाओं को उत्पन्न करने की शक्ति रखता है तो दोष होगा कि एक साथ ही सभी काल की अर्थक्रियाएं उत्पन्न हो जायेंगी। समर्थ पुरुष तो उत्पादन करता है। क्या वह विचार करता है कि हम कब उत्पादन करें ? जब काम, तब समाप्ति । २. यदि वह वैसी शक्ति नहीं रखता तब कभी कोई क्रिया उत्पन्न नहीं कर सकता, अगर असमर्थ हो तो क्रिया उत्पन्न करेगा कैसे। जो समर्थ होगा वही न कुछ उत्पन्न कर सकता है ? इम प्रकार दोनों विकल्पों के खण्डित हो जाने से स्थायी में अर्थक्रियाकारित्व स्वीकार नहीं करना होगा। (९. सहकारियों को सहायता पाकर भी अक्षणिक अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकता :) ननु क्रमवत्सहकारिलाभात स्थायिनोऽतीतानागतयोः क्रमेण करणमुपपद्यत इति चेत्-तत्रदं भवान्पृष्टो व्याचष्टाम् । सहकारिणः किं भावस्यो
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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