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________________ शांकर-दर्शनम् ७१३ ही अनुवृत्त अर्थात् पहले की तरह होते हैं । दोनों के विद्यमान रहने से वहाँ घटत्व ही विद्यमान है [ जिससे कच्चे और पक्के धड़ों में 'घट' शब्द का ही व्यापार होता है । वह बात यहाँ पर लागू नहीं है ] परन्तु यह शङ्का इसलिए ठोक नहीं कि यहाँ पर भी दोनों स्थितियों में वह बेंत का बीज एक समान ही है। तथा भस्मकदोषदूषितस्य जाठराग्नेर्बह्वन्नपचनसामयं दृश्यते । न च बह्वन्नपचनसामर्थ्य जाठरस्यैव जातवेदसो न भस्मकव्याधेरिति वक्तुं युक्तम् । तस्य मन्दमल्पपचनसामर्थेऽपि सहसा महत्पचनस्य भस्मकव्याधिसाहायकमन्तरेणानुपपत्तेः । अन्यथा सर्वेषां तथापत्तेः। ___उसी प्रकार भस्मक-दोष से दूषित जठराग्नि में बहुत-सा अन्न पचाने की सामर्थ्य देखते हैं। यह कहना ठीक नहीं है कि बहुत-सा अन्न पचाने की सामर्थ्य केवल जठराग्नि में ही है, भस्मक रोग में नहीं। उस (जठराग्नि ) में धीरे-धीरे थोड़ा-सा अन्न पचाने की सामर्थ्य होने पर भी अकस्मात् अधिक-से-अधिक अन्न पचाने की शक्ति तब तक सिद्ध नहीं होती जब तक भस्मक-रोगरूपी दोष की सहायता न ले ली जाय । यदि ऐसा नहीं हो तो सभी ( जठराग्नियों) के साथ यह बात होने लगेगी [ कि वे अधिक-से-अधिक अन्न पचाने लगेंगी-चाहे भस्मक रोग रहे या न रहे । परन्तु ऐसा नहीं देखते । इससे यह सिद्ध हआ कि दोषों का आविर्भाव हो जाने पर क्रिया विपरीत भी होती है । ] किं च ज्ञानानां यथार्थव्यवहारकारणत्वेऽपि दोषवशादयथार्थव्यवहारकारणत्वमङ्गोकुर्वाणो भवानेव पर्यनुयोज्यो भवति । तदुक्तं भाष्ये-'यश्चोभयोः समानो दोषो द्योतते तत्र कश्वोद्यो भवतीति' । अत्राप्युक्तम् ४१. यश्चोभयोः समो दोषः परिहारोऽपि वा समः। नैकः पर्यनुयोक्तव्यस्तादगर्थविचारणे ॥ इति। . इसके अतिरिक्त जब आप ( मीमांसक ) यह स्वीकार करने लगते हैं कि ज्ञान यथार्थ * व्यवहार का कारण होने पर भी दोष के कारण अयथार्थ व्यवहार के प्रयोजक हैं तो अपने ही तर्कों से आप स्वयं पकड़े जाते हैं। [ यह आशय है-मीमांसकों के अनुसार पुरोवर्ती पदार्थ का प्रत्यक्ष ( इदम् ) और रजत का स्मरण ( रजतम् ), ये दोनों ज्ञान सच्चे हैं किन्तु दोष के कारण एक ही ज्ञान से उत्पन्न जैसा व्यवहार जो करते हैं वह असत्य है। इसका अर्थ है कि आप स्वयं स्वीकार करते हैं कि दोष यथार्थ व्यवहार के विपरीत अयथार्थ व्यवहार के रूप में कार्य उत्पन्न करते हैं । धन्य है मीमांसकजी, स्वयं तो दोषों में विपरीत कार्योत्पादन-शक्ति मानते हैं और हम पर लाञ्छन लगाते हैं कि आप ऐसा मानते हैं । दोनों तो एक ही तरह के दोष से युक्त हैं । कौन किसे दोषी घोषित करे ? ] ___ इसे भाष्य में कहा है-'दोनों में जब समान दोष दिखलाई पड़ रहा है तो उसमें किसे लांछनीय समझें ?' यहाँ भी कहा गया है--( ४१ ) जब दोनों पक्षों में एक समान
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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