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________________ सर्वदर्शनसंग्रहे धर्माध्यारोपो दुरुपपादः । दुःखाभावे सुखत्वारोपस्य संयोगाभावे विभागत्वाभिमानस्य च दृष्टत्वात् । ३५० इसलिए प्रकाश का ही अभाव अन्धकार है । यहाँ ऐसा संदेह नहीं किया जा सकता कि अन्धकार विधानात्मक ( Affirmative ) शब्द के द्वारा ज्ञेय है और इसीलिए उसमें अभाव- शब्द का प्रयोग करना ठीक नहीं है । [ भावात्मक शब्दों के द्वारा ही अन्धकार का बोध कराना ठीक है । ] प्रलय ( सृष्टि का अभाव ), विनाश ( सत्ता का अभाव ), अवसान (समाप्ति) आदि शब्द यद्यपि अभाव के द्योतक हैं किन्तु इनका प्रयोग विधानार्थक रूप से ( जैसे - प्रलयः अस्ति ) भी होता है —— संदेह करने से इन शब्दों में व्यभिचार ( असिद्धि ) होगा । [ इस प्रकार यह अनुमान गलत हो गया कि जिन शब्दों में नकार का उल्लेख नहीं भाव-रूप ज्ञान के विषय ही हैं । वस्तुतः नञ् न रहने पर भी अभावार्थ हो सकता है इसलिए अन्धकार स्वरूपतः भावात्मक होने पर भी अर्थतः अभावात्मक है । ] ऐसा उदाहरण मिलना कठिन नहीं है कि अभावात्मक पदार्थ ( जैसे अन्धकार ) पर भावात्मक पदार्थ ( जैसे- नीलपुष्प आदि ) के धर्मों (जैसे- नीलत्व ) का आरोपण हो । दुःख का अभाव होने पर सुखत्व का आरोप देखते हैं तथा संयोग का अभाव होने पर विभाग का बोध होता है । [ उसी प्रकार प्रकाशाभाव होने पर अन्धकार का बोध होता है । ] न चालोकाभावस्य घटाद्यभाववद् रूपवदभावत्वेनालोकसापेक्षचक्षुर्जन्यज्ञानविषयत्वं स्यादित्येषितव्यम् । यद्ग्रहे यदपेक्षं चक्षुः, तदभावग्रहेऽपि तदपेक्षत इति न्यायेनालोकग्रहं आलोकापेक्षाया अभावेन तदभावग्रहेऽपि तदपेक्षाया अभावात् । , ऐसा भी कहना नहीं चाहिए कि जैसे [ रूप से युक्त ] घटादि पदार्थों का अभाव, आलोक की सहायता से, आंखों के ज्ञान का विषय होता है ( = प्रकाश की सहायता पाकर आँखें देख सकती हैं ) उसी प्रकार आलोक का अभाव भी रूपयुक्त पदार्थ का अभाव होने के कारण, प्रकाशयुक्त आँखों के ज्ञान का विषय होगा । जिस पदार्थ का ग्रहण करने में जिसकी अपेक्षा आँखों को होती है, उस पदार्थ के अभाव का ग्रहण करने के समय भी आँखें उसी की अपेक्षा करती हैं - इस नियम से ओलोक का ग्रहण करने में यदि आँखों को किसी दूसरे प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहती है तो आलोक के अभाव का ग्रहण करने के समय भी प्रकाश की अपेक्षा नहीं रहेगी । न चाधिकरणग्रहणावश्यंभावः । अभावप्रतीतावधिकरणग्रहणावश्यंभावानङ्गीकारात् । अपरथा, 'निवृत्तः कोलाहलः' इति शब्दप्रध्वंसः प्रत्यक्षो न स्यात् - इति अप्रामाणिकं परवचनम् । तत्सर्वमभिसंधाय भगवान्कणादः
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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