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________________ ७०६ सर्वदर्शनसंग्रहेइसलिए अब अवशिष्ट बचे दुसरे विकल्प को लें अर्थात् विद्यमान होने के कारण ( सत्तामात्र से ) भेदाग्रहरूपी सादृश्य को व्यवहार का कारण मानें। [ जैसे इन्द्रिय स्वयम् अज्ञात होने पर भी ज्ञान उत्पन्न करती है अथवा पास में पड़ी आग अज्ञात होने पर दाहक होती है उसी तरह इन दोनों ग्रहण स्मरणात्मक ज्ञानों में वस्तुतः विद्यमान भेदाग्रह ( सादृश्य ) ज्ञान न होने पर भी व्यवहार या प्रवृत्ति को उत्पत्ति कर सकता है । मीमांसकों ने ऐसा ही माना भी है। इस पर भी विचार करते हैं।] । एवमेवास्त्विति चेत्-तहि इदमिह संप्रधार्यम् । किमयं भेदाग्रहः समारोपोत्पादनक्रमेण व्यवहारकारणमस्तु, उतानुत्पादितारोप एव स्वयमिति । न च द्वितीयः पक्ष एव श्रेयान् । तावतैव व्यवहारोत्पत्तावारोपस्य गौरव-दोषदुष्टत्वादिति मन्तव्यम् । विशिष्टव्यवहारस्य विशिष्टज्ञानपूर्वकत्वनियमेनाज्ञानपूर्वकत्वानुपपत्तेः। यदि मीमांसक उपर्युक्त रूप में विकल्प को ही स्वीकार करें तो उन्हें यह स्पष्ट करना चाहिए कि यह भेदाग्रह समारोप की उत्पत्ति के क्रम से व्यवहार का प्रयोजक है या बिना आरोप की उत्पत्ति किये स्वयं ही व्यवहार को चलाता है ? [ सीपी पर रजत के स्वरूप का आरोप भेदाग्रह के ही कारण होता है । यही आरोप व्यवहार या प्रवृत्ति उत्पन्न करता है, इसलिए आरोप के क्रम से भेदाग्रह व्यवहारादि का कारण है, ऐसा मानते हैं। दूसरा विकल्प है कि भेदाग्रह रजत के स्वरूप को सीपी पर बिना आरोपित किये ही व्यवहार का प्रवर्तन करता है। दसरा पक्ष हो कोई अधिक अच्छा नहीं है क्योंकि यदि उतने से ही व्यवहार की सिद्धि ___ होती है तो आरोप को इस विवाद में ले आना कल्पनागौरव के दोष से दूषित हो जायगा। यह समझें । यह नियम है कि विशिष्ट व्यवहार विशिष्ट ज्ञान के बाद ही हो सकता है, इसलिए अज्ञान ( भेदाग्रह ) के बाद [ विशिष्ट व्यवहार की ] सिद्धि नहीं होती। [ जैसे पुरुष में दण्ड की विशिष्टता जानकर ही यह व्यवहार होता है कि यह दण्डी है वैसे ही सामने के पदार्थ में रजतत्व को विशिष्टता जानकर ही 'यह चाँदो है ऐसा व्यवहार करेंगे। अज्ञान से यह व्यवहार कभी सम्भव नहीं । भेद-ज्ञान न होना ही अज्ञान है। यदि अज्ञान ही व्यवहार का कारण होता तो सामने के पदार्थ के सन्निकर्ष के पूर्व भी तो वह सुलभ ही था तो वैसा व्यवहार क्यों नहीं हुआ, अथवा प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ? इसलिए चेतन के व्यवहार का कारण ज्ञान ही है, अज्ञान नहीं । विशेष-सत्तामात्रवाले विकल्पों में दूसरे को तो काट दिया गया किन्तु पहले को शंकर स्वयं स्वीकर करेंगे । तदनुसार आरोपपूर्वक भेदाग्रह के कारण ही रजत की प्रतीति होती है।
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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