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शांकर-दर्शनम्
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( १३ क. रजत का सीपी पर आरोप ) नन्वयं व्यवहारो नाज्ञानपूर्वक इत्यनाकलितपराभिसन्धिः स्वसिद्धान्तसिद्धार्थाद यदि कश्चिच्छङ्केत, स प्रतिवक्तव्यः ।
शुक्तिकाविषयस्य ग्रहणस्यासमोहितविषयत्वेन रजतार्थिप्रवृत्तिहेतुत्वासम्भवादन्वयव्यतिरेकाभ्यां रजतज्ञानस्य समीहितविषयत्वेन प्रवृत्तिहेतुत्वसम्भवाच्चेदमर्थाभिसम्भिन्नग्रहविविक्तस्यापि रजतस्मरणस्य कारणत्वं वक्तव्यम्।
यदि कोई ( मीमांसक ) अपने सिद्धान्त के सिद्ध अर्थ के अनुसार शंका करे और यह व्यवहार ( सीपी में चांदी का व्यवहार ) अज्ञानपूर्वक नहीं है' इस रूप में जो दूसरों ( वेदान्तियों) की अभिसन्धि ( धारणा, hold ) है उसका ध्यान न रखे तो उसे इस प्रकार उत्तर देना होगा। ये मीमांसक आरोप की आवश्यकता की सिद्धि करनेवाले वेदान्त के गूढ अभिप्राय को नहीं समझते । इसलिए ऐसा कहते हैं । ] __सीपी के विषय का जो ग्रहण है वह अभीष्ट विषय नहीं है इसलिए रजत के इच्छुक व्यक्ति में वह प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं कर सकता । दूसरी ओर अन्वय-व्यतिरेक से, रजत-ज्ञान अभीष्ट विषय होने के कारण प्रवृत्ति उत्पन्न कर सकता है। इन दोनों कारणों से, 'इदम्' अर्थ से संयुक्त उसके प्रत्यक्षानुभव से पृथक् होने पर भी रजत के स्मरण को ही कारण मानना चाहिए। [ इष्ट वस्तु का ज्ञान होने पर प्रवृत्ति होती है उसके अभाव में नहींइस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक के द्वारा निर्णय होता है कि रजत का ज्ञान ही प्रवृत्ति का कारण है। लेकिन स्मरणात्मक रजत-ज्ञान को प्रवृत्ति-कारण कहना सम्भव नहीं है। ज्ञान और इच्छा का विषय समान होने पर भी, इच्छा और प्रवृत्ति का समान विषय नहीं रह पायेगा । इच्छा का विषय ( इष्ट ) रजत भले ही हो परन्तु वह प्रवृत्ति का विषय नहीं है। कारण यह है कि प्रवृत्ति 'इदम्' के अर्थ की ओर अभिमुख हो रही है। तो यहाँ पर जिसकी
ओर प्रवृत्ति है, वही वस्तु ज्ञान या इच्छा का विषय बन जाती है-इसे किसी तरह सिद्ध करना ही है। यह 'इदम्' का अर्थ, जो प्रवृत्ति का विषय बना हुआ है, उसकी सिद्धि तब तक नहीं होगी, जब तक इच्छा के विषय-रजत-का आरोप नहीं मानेंगे । इसे ही आगे समझा रहे हैं।] ___ तच्च वक्तुं न शक्यते। जानाति इच्छति ततः प्रवर्तत इति न्यायेन ज्ञानेच्छाप्रवृत्तीनां समानविषयत्वेन भाव्यम् । तथा चेदंकारास्पदाभिमुखप्रवृत्तस्य रजतार्थिनस्तदिच्छानिबन्धनम् । अन्यथा अन्यदिच्छन्नन्यद् व्यवहरतीति व्याहन्येत । तथा च यदीदंकारास्पदं रजतावभासगोचरतां नाचरेकथं रजतार्थो तदिच्छेत् । यद्यरजतत्वाग्रहणादिति ब्रूयात् रजतत्वाग्रहात्कस्मादयं नोपेक्षेतेति ।