SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 745
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वदर्शनसंग्रहे किन्तु यह कहा नहीं जा सकता [ कि स्मरणात्मक रजत ज्ञान प्रवृत्ति उत्पन्न करता हैं ]। एक नियम है कि मनुष्य किसी वस्तु को जानता है, तब उसकी इच्छा करता है और अन्त में उसके लिए प्रवृत्त होता है - इससे स्पष्ट है कि ज्ञान, इच्छा और प्रवृत्ति का विषय एक ही वस्तु रहनी चाहिए। उसके अनुसार, जो रजतार्थी 'इदम्' शब्द के द्वारा प्रतीत वस्तु की ओर प्रवृत्त हुआ है, उसको इच्छा भी उसी ( 'इदम् ' शब्द के द्वारा प्रतीत वस्तु ) पर आधारित है । यदि ऐसा नहीं होगा तो दूसरी वस्तु की इच्छा हो और व्यवहार दूसरी वस्तु का करें - ऐसा व्याघात होने की सम्भावना होगी । ७०८ ऐसी स्थिति में यदि 'इदम् ' शब्द का प्रतीति-विषय रजत ज्ञान को विषय नहीं बनाता ( = 'इदम् ' से रजत का ज्ञान नहीं होता ) तो रजताथ उसकी इच्छा कैसे करेगा ? यदि ये उत्तर दें कि [ सामने में विद्यमान वस्तु ] रजत से भिन्न है, ऐसा ग्रहण नहीं होता [ इसीलिए रजतार्थी उसकी इच्छा करेगा ] तो हम कहेंगे कि [ उन्हीं मीमांसकों के मत से ] चूँकि सन्निहित वस्तु का रजत के रूप में ग्रहण नहीं किया गया है, इसलिए उसकी उपेक्षा वह क्यों नहीं करेगा ? [ रजत के रूप में ग्रहण न होने से उधर प्रवृत्ति ही नहीं होगी - यह उत्तर दिया जा सकता है । उपेक्षा = प्रवृत्ति नहीं होना । ] युगपत्तद्भव - भेदाग्रहा भेदाग्रह - निबन्धनाभ्यामुपादानोपेक्षाभ्यां पुरतः पृष्ठतश्वाकृष्यमाणः पुरुषो दोलायमानतया रूप्यारोपमन्तरेणोपादानपक्ष एव न व्यवस्थाप्यत इत्यनिच्छताऽप्यच्छमतिना समारोपः समाश्रयणीयः । यथाह - भेदाग्रहादिदंकारास्पदे रजतत्वमारोप्य तज्जातीयस्योपकारहेतुभावमनुस्मृत्य तज्जातीयत्वेनास्यापि तदनुमाय तदर्थी प्रवर्तत इति प्रथमः पक्षः प्रशस्यः । इससे एक ही साथ ( Simultaneously ) रजत के भेद का अज्ञान और रजत के अभेद का [ दोनों उत्पन्न होंगे जिन ] पर आधारित उपादान ( प्रवृत्ति ) और उपेक्षा ( अप्रवृत्ति ) के द्वारा पुरुष ( रजतार्थी ) आगे-पीछे की ओर खिंचने लगेगा । [ उपर्युक्त दोनों अज्ञान एक ही साथ विद्यमान रहेंगे । अपना-अपना कार्य वे एक ही साथ करेंगे । लेकिन प्रवृत्ति और अप्रवृत्ति दोनों एक ही साथ सम्भव नहीं होती । ] वह मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ ( Confused ) होने से तब तक प्रवृत्ति के पक्ष में समझा नहीं जा सकता जब तक हम रजत का सीपी पर आरोप नहीं मान लें । [ रजत का आरोप मान लेने से व्यक्ति की प्रवृत्ति उस आरोपित रजत की ओर सरलता से सिद्ध हो जायगी । ] इस तरह आप जैसे स्वच्छ बुद्धि के व्यक्ति को, इच्छा न रहते हुए भी समारोप ( Imposition ) मान ही लेना चाहिए । जैसा कि कहा है-भेद के अज्ञान के कारण 'इदम्' शब्द के द्वारा प्रतिपादित वस्तु पर रजतत्व का आरोप करके, उस जातिवाले ( रजत ) पदार्थ को उपकार का कारण
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy