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बौड-दर्शनम् और ऐसा भी नहीं कहना चाहिए कि शिष्यों (विनेय ) के अभिप्रायों के कारण उपदेशों में भेद होना साम्प्रदायिक नहीं है। ( शिष्यों की विभिन्न बुद्धि के कारण गुरु का उपदेश एक होने पर भी सम्प्रदाय-different schools-के चलते उपदेशों में भेद होता है । बुद्ध का उपदेश एकात्मक ही था । ) ऐसा बोधिचित्त के विवरण ( टिप्पणी के रूप में छोटी टीका ) में कहा गया है-'सन्मार्ग-प्रदर्शकों ( लीक के स्वामियों, आचार्यों ) के उपदेश, समझनेवाले लोगों के अभिप्रायों के चपेट में पड़कर, संसार में विभिन्न मार्गों ( उपायों ) के कारण प्रायः भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं । उनके उपदेश कहीं गम्भीर हैं, कहीं स्पष्ट ( उत्तान ), कहीं पर दोनों प्रकार के लक्षणों ( गम्भीरता और स्पष्टता ) से युक्त हैं-इसलिए भेद के कारण उपदेश भिन्न लगते हैं, किन्तु तत्त्व एकमात्र शून्य है और जो अद्वय ( Non-dual ) और अभिन्न हैं। ( उपदेश के भेद से तत्त्व में भेद नहीं पड़ता, भेद होता है तो मार्ग या सम्प्रदाय में । शून्यतत्त्व का वर्णन सभी करते हैं परन्तु अपनी बुद्धि के अनुसार ही । हीन बुद्धिवाले शिष्य एक शब्द में शून्यता को समझ न सके तो सर्वास्तित्त्ववाद के माध्यम से समझे । मध्यम बुद्धि वाले ज्ञान मात्र का अस्तित्व मानकर समझ सके, तो प्रकृष्ट बुद्धिवाले शिष्य साक्षात् रूप से शून्यता को समझ गये ।)
( ३३. द्वादश आयतनों की पूजा ) द्वादशायतनपूजा श्रेयस्करीति बौद्धनये प्रसिद्धम्२८. अर्थानुपाय॑ बहुशो द्वादशायतनानि वै।
परितः पूजनीयानि किमन्यैरिह पूजितः ॥ २९. ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चव तथा कर्मेन्द्रियाणि च ।
मनोबुद्धिरिति प्रोक्तं द्वादशायतनं बुधैः ॥ इति ॥ बौद्धों के सिद्धान्त में प्रसिद्ध है कि बारह आयतनों ( अन्तःस्थानों ) की पूजा मोक्ष देनेवाली है—'बहुत-सा धन उपार्जित करके द्वादश आयतनों की पूजा करनी चाहिए । यहाँ दूसरी पूजाओं से क्या लाभ है ? विद्वानों ने कहा है कि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ( चर्म, नेत्र, कर्ण, रसना और नासिका ), पाँच कर्मेन्द्रियाँ ( हाथ, पैर, मुह, जननेन्द्रिय तथा गुदा ), मन और बुद्धि-ये ही द्वादश आयतन हैं ।' (= इनसे सम्यक् कर्म करना चाहिए । )
(३४. बौद्ध-मत का संग्रह ) विवेकविलासे बौद्धमतमित्थमभ्यधायि३०. बौद्धानां सुगतो देवो विश्वं च क्षणभंगुरम् ।
आर्यसत्याख्यया तत्त्वचतुष्टयमिदं क्रमात् ।। ३१. दुःखमायतनं चैव ततः समुदयो मतः ।
मार्गश्चेत्यस्य च व्याख्या क्रमेण श्रूयतामतः ॥