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सर्वदर्शनसंग्रहे
दो प्रकार का है - निर्विकल्पक जो प्रमाण है तथा सविकल्प जो प्रमाण नहीं । उपमानादि में भी गो के सदृश गवय कहने पर पूर्वदृष्ट गो की कल्पना की जाती है अतः वह भी प्रमाण नहीं है । इस प्रकार वस्तुओं का ज्ञान निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा ही सम्भव है ।
ननु सविकल्पकस्याप्रामाण्ये कथं ततः प्रवृत्तस्यार्थप्राप्तिः संवादश्वोपपद्येयातामिति चेत् न तद् भद्रम् । मणिप्रभाविषयमणिविकल्पन्यायेन पारंपर्येणार्थप्रतिलम्भसंभवेन तदुपपत्तेः । अवशिष्टं सौत्रान्तिकप्रस्तावे प्रपञ्चितमिति नेह तन्यते ।
यदि कोई यह शंका करे कि जब आप सविकल्पक को अप्रमाण मानते हैं तब इसी ज्ञान को पाकर, जो व्यक्ति प्रस्तुत होकर, वस्तु की प्राप्ति करता है, जिससे सभी सहमत हैं ( कोई विवाद नहीं ) - इसकी सिद्धि कैसे होगी ? ( माना कि सीपी को चाँदी समझ 'इदं रजतम्' कहना भ्रान्त है क्योंकि वहाँ अर्थ या वस्तु की प्राप्ति नहीं होती लेकिन सत्य रजत की स्थिति में तो अर्थ-प्राप्ति होती है । इसे आप कैसे अप्रमाण कह सकते हैं ? इसमें किसी का विवाद भी नहीं कि यह चांदी नहीं है। सच्ची चीज को कौन नहीं मानेगा ? इसलिए आपको सविकल्पक की प्रामाणिकता स्वीकार करनी पड़ेगी ) ।
उतर है कि शंका ठीक नहीं । मणि की प्रभारूपी विषय से जिस प्रकार मणि की कल्पना की जाती है उसी परम्परा ( क्रम ) से इस प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान सम्भव है, यह सिद्ध होता । ( मणि की प्रभा को देखकर कोई भ्रम से 'यह मणि है' यह सोचकर जाय तो उसे प्रभा के द्वारा ही मणि की प्राप्ति होती है । पर 'यह रजत है' इस प्रकार सविकल्पक भ्रम ज्ञान से रजत की प्राप्ति होती है। अभिप्राय है कि भ्रम ज्ञान से ही क्रमशः सत्यज्ञान होता है । ) शेष बातें सोत्रान्तिकों की प्रस्तावना करते समय ही कह दी गई हैं, यहाँ पर नहीं बढ़ाई जा रही हैं ।
वैसे ही सत्यरजत के स्थान कोई जाय तो उसे उसी
( ३२. तत्त्व की अभिन्नता - मार्गों में भेद )
न च विनेयाशयानुरोधेनोपदेशभेद: साम्प्रदायिको न भवतीति भणितव्यम् । यतो भणितं बोधिचित्तविवरण --
२६. देशना लोकनाथानां सत्त्वाशयवशानुगाः । भिद्यन्ते बहुधा लोक उपायैर्बहुभिः पुनः ।। २७. गम्भीरोत्तानभेदेन क्वचिच्चोभयलक्षणा ।
भिन्ना हि देशनाभिन्ना शून्यताद्वयलक्षणा ॥ इति ।
१ – तुलना करें - वाक्यपदीय - उपायाः शिक्ष्यमाणानां बालानामुपलालनाः । असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥