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________________ ११६ सर्वदर्शनसंग्रहे तदुक्तं वीतरागस्तुतौ१६. कर्तास्ति कश्चिज्जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः स नित्यः। इमाः कुहेवाकविडम्बनाः स्यु स्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥ ( वी० स्तु० ६ ) इति ॥ अन्यत्रापि१७. कर्ता न तावदिह कोऽपि यथेच्छया वा दृष्टोऽन्यथा कटकृतावपि तत्प्रसङ्गः। कार्य किमत्रभवतापि च तक्षकाद्यै राहत्य च त्रिभुवनं पुरुषः करोति ॥ इति ॥ जैसा की वीतरागस्तुति में कहा गया है ---'इस जगत् ( प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ज्ञात चराचर ) का कोई कर्ता है, वह एक है, वह सर्वव्यापी है, वह स्वतन्त्र है, वह नित्य हैजिन ( नैयायिकों ) की इस प्रकार की दुराग्रह-( कु = असत, हेवाक = हठ ) रूपी विडम्बनाएं ( मायाजाल ) हैं, [ हे जिनेन्द्र ! ] तुम उनके शिक्षक ( अदेशक ) नहीं हो।' दूसरे स्थान में भी ( कहा है )-'इस संसार में अपनी इच्छा से काम करनेवाला कोई देखा नहीं जाता, नहीं तो चटाई ( कट Mat ) बनाने में भी उसकी प्रसक्ति ( Inclusion ) हो जायगी। फिर आप श्रीमान् तथा बढ़ई आदि के लिए कार्य ही क्या रह जायगा, जब के वह पुरुष ( ईश्वर ) ही तीनों भुवनों का संग्रह करके ( आ --- हन् = संकलन ) निर्माण करना है ?' विशेष-वीतरागस्तुनि के इस श्लोक में श्लोक में नैयायिकों के द्वारा ईश्वर के लिए प्रदत्त चार विशेषणों का प्रयोग हुआ है-एक, सर्वग, स्ववश और नित्य । ईश्वर के एकत्व के विषय में तो ऊपर विचार हो चुका है कि एकत्व उसमें नहीं है। अब अगले विशेषणों का विचार करें। सर्वग (. सर्वव्यापी )-यदि ईश्वर सर्वव्यापी है तो उसी के शरीर मंसार अवच्छिन्न है, दूसरे किसी के द्वारा बनाई गई वस्तुओं के लिए फिर कोई आश्रय से नहीं रहेगा। । यही नहीं, नरक आदि स्थानों में भी ईश्वर की प्रसक्ति माननी पड़ेगी । इस प्रकार उसे सर्वग सिद्ध नहीं कर सकते । स्ववश (स्वतन्त्र )-यदि ईश्वर को स्वतन्त्र मानते हैं तो अपने कारुणिक-स्वभाव से प्राणियों को वह सुखी ही बनाना, दृग्वी नहीं। यदि प्रत्येक प्राणी के द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्म से प्रेरित होकर ही उसे दुखी या मुखी बनाता है, तब स्वतन्त्रता कहीं रही ? दूसरे यदि वह कर्म की अपेक्षा रखता है, तब सर्वेश्वरत्व भी उससे छिन गया क्योंकि ईश्वर अब कर्मों को तो नियन्त्रित नहीं कर सकता । वास्तव में कर्म ईश्वर का नियमन नहीं कर सकते। नित्यगंगार के कर्ना ईश्वर को नित्य भी नहीं कह सकते । अगर उसका स्वभाव संसार का
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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