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सर्वदर्शनसंग्रहे
स्थान पर दोनों पहुँच जायें, तो कर्म का पलड़ा भारी रहता है । अनुशासन का कर्म 'शब्द' है, अतः षष्ठी तो होगी, पर 'कर्मणि च ' सूत्र पहले से ही समास न होने देने के लिए तैयार है । 'शब्दानुशासन' यह समस्त ( Compound ) पद नहीं होगा; हाँ ' शब्दों का अनुशासन' ऐसा व्यस्त वाक्य हो सकता है । केवल समास नहीं होगा, षष्ठी होने से कौन रोकता है ? यह शंका 'शब्दानुशासन' का शब्द के साधुत्व पर ही उठाई गई है ।
अत्रायं समाधिरभिधीयते - यस्मिन्कृत्प्रत्यये कर्तृकर्मणोरुभयोः प्राप्तिरस्ति, तत्र कर्मण्येव षष्ठीविभक्तिर्भवति न कर्तरीति बहुव्रीहिविज्ञानबलान्नियम्यते । तद् यथा - आश्चर्यो गवां दोहोऽशिक्षितेन गोपालकेनेति । शब्दानुशासनमित्यत्र तु शब्दानामनुशासनं नार्थानामित्येतावतो विवक्षितस्यार्थस्याचार्यस्य कर्तरुपादानेन विनापि सुप्रतिपादत्वादाचार्योपादानमकिंचित्करम् ।
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अब इसका समाधान बतलाते हैं। सूत्र को बहुव्रीहि समास में तोड़ने पर ( उभयोः प्राप्तिः यस्मिन्कृत्प्रत्यये सः उभयप्राप्तिः ) यह अर्थ निकलता है कि जब कृत प्रत्यय के होने पर [ क्रिया के ] कर्ता और कर्म दोनों का प्रयोग हो, वहाँ कर्म में ही षष्ठी होती है, कर्ता में नहीं - यह नियम ( Restriction ) हुआ । जैसे - आश्चर्यो गवां दोहः अशिक्षितेन गोपालकेन ( मूर्ख या अनाड़ी ग्वाले के द्वारा गौओं का दुहा जाना आश्चर्यजनक है ) । [ 'उभयप्राप्ती कर्मणि' सूत्र में ऊपर के 'कर्तृकर्मणोः कृति' से 'कृति' शब्द का अनुवर्तन होता है तथा 'उभयप्राप्ती कृति' ऐसा करके दोनों में विशेष्य-विशेषण -भाव माना जाता है | अर्थ यह हुआ कि जिन कृत्-प्रत्ययों के प्रयोग में कर्ता और कर्म दोनों आ रहे हों वेसी अवस्था में 'कर्तृकर्मणोः कृति' से कर्ता में होनेवाली षष्ठी न होकर केवल कर्म में ही हो — जब केवल कर्ता का प्रयोग हो तब उसमें षष्ठी होगी । 'दोहः' शब्द दुह + घञ् करके बना है, दुह का कर्ता है ' गोपालक' और कर्म है 'गो' । दोनों का प्रयोग एक ही साथ हुआ है, अतः कर्ता में षष्ठी न होकर कर्म 'गो' को षष्ठी हुई - गवां दोहः । यह सूत्र का अर्थ है । ]
'शब्दानुशासन' शब्द में तो 'शब्दों का अनुशासन, अर्थों का नहीं' इतनी ही बात कहने की है, जो कर्ता 'आचार्य' को बिना लाये भी अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है, अत: 'आचार्य' शब्द का लाया जाना कोई विशेष प्रयोजन नहीं रखता ।
तस्मादुभयप्राप्तेरभावादुभयप्राप्तौ कर्मणीत्येषा षष्ठी न भवति । किन्तु 'कर्तृकर्मणोः कृति' ( पा० सू० २।३।६५ ) इति कृद्योगे कर्तरि कर्मणि च षष्ठी विभक्तिर्भवतीति कृद्योगलक्षणा षष्ठी भविष्यति । तथा च इध्मप्रव्रश्चन - पलाशशा तनादिवत्समासो भविष्यति ।
इसलिए दोनों ( कर्ता और कर्म का ) प्रयोग न होने से इस स्थान पर 'उभयप्राप्ती कर्मणि' ( २/३/६६ ) से षष्ठी नहीं होती [ 'कर्मणि च ' ( २।२।१४ ) के द्वारा जो कर्म