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पाणिनि-दर्शनम्
'अथ' शब्द का प्रयोग करने से दूसरे अर्थों ( जैसे - स्तुति करना, वर्णन करना आदि ) का निराकरण करके 'प्रस्तुत किया जाता है' ऐसा अर्थ रखते हैं । [ यही कारण है कि 'अथ' शब्द प्रारम्भ में दिया गया है । ]
इस प्रकार 'शं नो देवीरभिष्टये' ( दिव्य जल हमारा कल्याण करें और इच्छापूर्ति में सहायक हों, अथर्व १।१ ऋ. सं. १०१९१४ ) इत्यादि वैदिक शब्दों का और [ अर्थप्रकाशन के माध्यम से उनकी सहायता करनेवाले 'गौ, अश्व, पुरुष, शकुनि' आदि लौकिक शब्दों का अनुशासन होता है, व्युत्पत्ति के द्वारा उसका संस्कार होता है, ये प्रकृति और प्रत्यक्ष के रूप में बांट कर समझे जाते हैं - यही शब्दानुशासन है । [ वैदिक शब्दों का अर्थबोध भी लौकिक शब्दों की तरह ही होता है । वहाँ भी पद की शक्ति मानी जाती है - जिस शब्द की शक्ति ( स ' मर्ध्य, Denotation ) का ज्ञान लौकिक भाषा में हो गया, उसका ज्ञान वेद में भी हो जायगा। लोक में शब्दशक्ति - बोध कराने के कई उपाय हैं, जैसे - वृद्धव्यवहार, व्याकरण, कोश आदि । इन शक्तिग्राहक प्रमाणों के द्वारा कोई व्यक्ति लोक में शब्दशक्ति का बोध कर लेता है तब वेद में भी ऐसा शब्दबोध हो जाता है । ( लोकावगत सामर्थ्यः शब्दो वेदेऽपि बोधक: ) । अतः लौकिक शब्दशक्ति की आधारशिला पर वैदिक शब्दशक्ति अवलम्बित है । मीमांसक भी वेद में अर्थ मानने के लिए लौकिक वाक्यों की युक्ति देते हैं । ]
( २ क. 'शब्दानुशासन' पर विचार-विमर्श )
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अत्र केचित्पर्यनुयुञ्जते - अनुशासि क्रियायाः
सकर्मकत्वात्कर्मभूतस्य शब्दस्य कर्तृभूतस्याचार्यस्य प्राप्तौ सत्याम् 'उभय- प्राप्तौ कर्मणि' (पा० सू २।३।६६ ) इत्यनुशासनबलात् कर्मण्येषा षष्ठी विधातव्या । तथा च 'कर्मणि च ' ( पा० सू० २।२।१४ ) इति समासप्रतिषेधसम्भवा च्छन्दानुशासनशब्दो न प्रमाणपथमवतरतीति ।
यहाँ पर कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि अनुशासन क्रिया सकर्मक है, प्रस्तुत शब्द ( शब्दानुशासन ) में उसका कर्म 'शब्द' है और कर्ता 'आचार्य' ( जो अप्रयुक्त है ) है । दोनों शब्दों में [ 'कर्तृकर्मणोः कृति' ( पा० सू० २।३।६५ ) से अनुसार ] षष्ठी होने की सम्भावना हो जाने पर 'उभयप्राप्ती कर्मणि' ( पा० सू० २।३।६६ ) के अनुसार यहाँ पर कर्म में ही षष्ठी विदित होनी चाहिए । [ इसलिए शब्दानामनुशासनम् = शब्दानुशासनम्, यह षष्ठी तत्पुरुष समास होगा ।] किन्तु 'कर्मणि च ' ( पा० सू० २।२।१४ ) के अनुसार कर्म में षष्ठी होने पर समास नहीं होता, अतः शब्दानुशासन-शब्द किसी भी दशा में प्रामाणिक नहीं माना जा सकता ।
विशेष – 'अनुशासन' शब्द अनु-पूर्वक / शास में ल्युट् प्रत्यय करके बनता है । ल्युट् कृत् प्रत्यय है, क्योंकि धातु से विहित, अतिङ् है ( देखिये -- कृदतिङ् ३।१।९० | किसी धातु में कृतु प्रत्यय होने पर : उस क्रिया के कर्ता और कर्म में षष्ठी होती है । यदि किसी