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आहेत-वर्शनम्
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अपरिग्रहवत-सभी वस्तुओं में इच्छा का त्याग कर देना अपरिग्रह है क्योंकि इच्छा (मूर्छा ) के द्वारा असत् ( बुरी या सत्ताहीन Nonexistent ) वस्तुओं में चित्त की विकृति हो जाती है ॥ २६ ॥
विशेष-पतञ्जलि ने योगसूत्रों में ( २।३० ) यम के रूप में इन्हीं पांच व्रतों का उल्लेख किया है जो योग-शास्त्र के अष्टाङ्ग-मार्ग में प्रथम-मार्ग के रूप में आते हैं । ब्रह्म के अनुसार आचरण करना ब्रह्मचर्य है । यह अठारह प्रकार का है। काम दो हैं-दिव्य और औदरिक । इन दोनों के भी तीन-तीन भेद होंगे, क्योंकि ये कृत, अनुमत और कारित हो सकते हैं । इस प्रकार छह भेद हुए। अब मन, वचन या कर्म से प्राप्त होने के कारण इसके भी तीन-तीन भेद हुए । इस प्रकार कुल अठारह भेद हुए-अठारह कामनाओं के त्याग से अठारह ब्रह्मचर्य हुए-(१) मनःकृत-दिव्यकामत्याग, (२) मनःकृतीदरिककामत्याग, (३) मनोऽनुमतदिव्यकामत्याग आदि। मूर्छा = इच्छा । 'मूर्छा परिग्रहः' ( तत्व० सू० ७.१२ ) के भाग्य में लिखा है-इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाध्यं मूर्च्छत्यनान्तरम् । अनर्थान्तर = पर्याय ( Synonymous )।
(१७. प्रत्येक व्रत को पाँच-पाँच भावनाएँ ) . २७. भावनाभिर्भावितानि पञ्चभिः पञ्चधा क्रमात् ।
- महाव्रतानि लोकस्य साधयन्त्यव्ययं पदम् ॥ इति । भावनापञ्चकप्रपञ्चनं च निरूपितम्२८. हास्यलोभभयक्रोधप्रत्याख्याननिरन्तरम् ।
आलोच्य भाषणेनापि भावयेत्सूनृतं व्रतम् ॥ इत्यादिना । एतानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मिलितानि मोक्षकारणं न प्रत्येकम् । यथा रसायनम्, तथा चात्र ज्ञानश्रद्धानाचरणानि सम्भूय फलं साधयन्ति, न प्रत्येकम।
पाँच भावनाओं ( States of mind ) के द्वारा पाँच प्रकार से क्रमशः भावित ( व्यवहृत ) ये महाव्रत संसार के अक्षय ( स्थायी ) पद की सिद्धि करते हैं ॥ २७ ॥ पांच भावनाओं के विस्तार का निरूपण इस प्रकार हुआ है- हास्य ( विनोद ), लोभ, भय एवं क्रोध का तिरस्कार (प्रत्याख्यान ) सदेव करके ( = ४ भावनाओं से ) तथा सोच-समझकर ( आलोचना करके ) भाषण के द्वारा सूनृत-व्रत का व्यवहार करना चाहिए ॥ २८ ॥ . [ केवल सत्यव्रत के लिए पांचों भावनाएं बतलाई गई हैं । अन्य के लिए नीचे 'विशेष' देखें।]
ये सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र मिलकर मोक्ष का कारण बनते हैं, प्रत्येक पृथक्-पृथक् नहीं। जैसे रसायन-सेवन में उसका ज्ञान, उस पर विश्वास तथा उसका प्रयोग तीनों मिलकर फल देते हैं, पृथक्-पृथक् नहीं ।
विशेष-सभी व्रतों की भावनाएं भिन्न-भिन्न हैं । केवल सूनृत की भावनाओं का निर्देशक श्लोक ही उद्धृत किया गया है । अन्य भावनाएं यों हैं