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शांकर-दर्शनम्
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[ मीमांसक कहते हैं कि ] ऐसी बात नहीं है । [ यद्यपि यहाँ पर ग्रहण और स्मरण नहीं हैं तथापि ] व्यवहार के प्रयोजक के रूप में दो ग्रहणों की ही सिद्धि होती है । इन दोनों ग्रहणों के बीच भेद का ज्ञान नहीं होता तथा ये समीचीन ( ठीक Correct ) संसर्ग के ज्ञान की तरह ही हैं । [ पीत शंख में दो प्रत्यक्ष ज्ञान ही हैं जिन्हें हम ग्रहण करते हैं । एक प्रत्यक्ष है पीत, दूसरा है शंख । इन दोनों ग्रहणात्मक ज्ञानों में वस्तुतः जो परस्पर भेद है, दोष के कारण उसकी प्रतीति नहीं होती । ]
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नेत्ररणों में अवस्थित पित्तद्रव्य की पीतिमा का ग्रहण होता है, पित्तद्रव्य का ग्रहण उसमें नहीं कर पाते । [ पीत शंख का ज्ञान पित्त के पित्त आँखों की किरणों में रहनेवाला पीले रंग का एक सूक्ष्म द्रव्य है जब आंखों की किरणें शंख से सम्बद्ध होती हैं तब दोषवश पित्तद्रव्य का ग्रहण न होकर केवल उसमें स्थित पीत गुण का ही ग्रहण होता है । यह हुआ पीत का प्रत्यक्ष अर्थात् पित्तद्रव्य के पीलेपन का ग्रहण करते हैं । अब शंख का प्रत्यक्ष देखें । ] शंख का केवल स्वरूप ही गृहीत होता है उसके शुक्ल गुण का ग्रहण नहीं होता । [ पीत के प्रत्यक्ष में केवल गुण का ग्रहण हुआ, शंख के प्रत्यक्ष में केवल गुणी का । ये दोनों प्रत्यक्ष सम्यक् संसर्गज्ञान के समरूप है । समीचीन संसर्गज्ञान का अर्थ है स्वर्ण आदि में वस्तुतः विद्यमान रहनेवाले पीत गुण के सम्बन्ध का ज्ञान । ]
तो, इन दोनों में अर्थात् गुण और गुणी में, जो संसर्ग के ग्रहण न हो सकने की समानता है तथा पीले स्वर्ण ( तपनीय ) रूपता के कारण उक्त व्यवहार चलता है । [ ( १ ) मेद तुलना - पीत के प्रत्यक्ष में दोषवश द्रव्य का ग्रहण नहीं होता है, में दोषवश गुण का ग्रहण नहीं हो रहा है । इसे इस सूत्र द्वारा समझें
पीत + ( पित्त ) ।
( श्वेत ) + शंख ।
यथोक्तम्
= पीत + शंख ।
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परन्तु दोषवत हम
दोष से होता है ।
सर्वथा योग्य है, भेद का पिण्ड की प्रतीति की समग्रहण न हो सकने की उधर शंख के प्रत्यक्ष
( २ ) समीचीन और द्रव्य दोनों का
कोष्ठ में दिये गये द्रव्य या गुण का ग्रहण नहीं हो रहा है । संसर्ग -ज्ञान से तुलना स्वर्ण वास्तव में पीला है । यहाँ गुण प्रत्यक्ष होता है । साथ ही दोनों के शुद्ध सम्बन्ध का भी प्रत्यक्ष होता है । इसी प्रत्यक्ष के समान उक्त पीत शंख का प्रत्यक्षद्वयात्मक ज्ञान भी है। इसी से व्यवहार चलता है |
असंगति नहीं है ।
३१. पीतवबोधे हि पित्तस्येन्द्रियवर्तिनः । पीतिमा गृह्यते द्रव्यरहितो दोषतस्तथा ॥