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बौद्ध-पर्शनम्
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बुद्ध ने दार्शनिक प्रश्नों का विवेचन न करके सीधे आर्यसत्यों का ही उपदेश दिया । सारनाथ में दिया गया उनका प्रथम उपदेश द्रष्टव्य है (धम्मचक्कप्पवत्तण-सुत्त)। उनका कथ्य था कि संसार में लोग दारुण व्यथा से सन्तप्त हैं। उन्हें बचाने का उपाय न करके दार्शनिक गुत्थियों, जैसे—आत्मा, ईश्वर, कार्य, कारण आदि को सुलझाना मूर्खता है। है। किसी को बाण लग जाय तो निकालकर मरहम-पट्टी करनी चाहिए, न कि यह पता लगाते फिरें कि किसने बाण फेंका ? क्षत्रिय ने, ब्राह्मण ने • • •? वह किधर बैठा था ? वह किस रंग का था ? आदि-आदि । अन्य प्रश्नों पर बुद्ध मौन ही हो जाते थे। किन्तु उनके शिष्यों ने मौन का पूरा लाभ उठाया और वे दर्शन के दुरूह दलदल में फंस गये । फल स्पष्ट था कि अपनी-अपनी बुद्धि लोगों ने दौड़ाई तथा वैभाषिक-सौत्रान्तिक आदि सम्प्रदाय बन गये । बुद्ध ने वास्तव में दर्शन ( Philosophy ) नहीं दिया, उनका बस नीतिशास्त्र ( Ethics ) है । आर्यसत्यों में सिद्धान्त और व्यवहार का अनुपम समन्वय है।
समुदायो दुःखकारणम् । तद् द्विविध-प्रत्ययोपनिबन्धनो हेतूपनिबन्धनश्च। तत्र प्रत्ययोपनिबन्धनस्य संग्राहकं सूत्रम्-'इदं प्रत्ययफलम्' इति । इदं कार्य ये अन्ये हेतवः प्रत्ययन्ति गच्छन्ति, तेषामवमानानां हेतूनां भावः प्रत्ययत्वं कारणसमवायः, तन्मात्रस्य फलं, न चेतनस्य कस्यचिदिति सूत्रार्थः।
समुदाय का अर्थ है दुःख का कारण । वह ( कारण ) दो प्रकार का है-(१) प्रत्यय पर आधारित और ( २ ) कारण ( हेतु ) पर आधारित । इनमें प्रत्यय पर आधारित ( दुःखकारण ) को समझानेवाला सूत्र है-'यह ( कार्यसमूह ) प्रत्यय (कारणसमवाय ) का ही परिणाम है।' इस कार्य [ के उत्पादन ] की ओर जो दूसरे हेतु जाते हैं ( कार्य उत्पन्न करते हैं—कार्य प्रति अयन्ति ), उन जानेवाले ( दूसरे कारणों के साथ मिलनेवाले ) कारणों का भाव ही प्रत्यय है जिसे कारण-समवाय भी कह सकते हैं। [ कार्य] उन प्रत्ययों का ही फल है चेतन का नहीं—यही सूत्र का अर्थ है । [आशय यह है कि कारणों के समूह के स्वभाव से ही कार्य की उत्पत्ति होना-प्रत्ययोपनिबन्धन समुदाय है। अंकुर को उत्पन्न करने में मिट्टी, जल, बीज आदि कारण हैं कोई चेतन सत्ता ('अहम् करोमि' के रूप में ) इन पदार्थों में नहीं है । न तो मिट्टी ही चेतन है न अंकुर ही। चेतन सत्ता के अभाव में केवल कारणों से कार्य होता है । हेतूपनिबन्धन में क्रमिक कार्य होता है-अंकुर से काण्ड, काण्ड से नाल, नाल से गर्भ "आदि । यहाँ भी चेतन सत्ता नहीं रहती । न तो अंकुर ही समझता है कि मैं उत्पन्न कर रहा है और न काण्ड ही अपने को उत्पादित समझता ।]
यथा बीजहेतुरङ्कुरो धातूनां षण्णां समवायाज्जायते। तत्र पृथिवीधातुरङ्कुरस्य काठिन्यं गन्धं च जनयति । अब्धातुः स्नेहं रसं च जनयति ।