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________________ जैमिनि-दर्शनम् ४७५ प्रत्यक्ष ) बहुत बड़े निबन्ध के द्वारा प्रतिपादित करके 'कोलाहल समाप्त हो गया', 'हल्ला शुरू हुआ' इस प्रकार के व्यवहारों में शब्द को अनित्य मानने का कारण प्रत्यक्ष प्रमाण ही है, ऐसा सिद्ध करते हैं । [ शब्द की उत्पत्ति और ध्वंस होता है अतः वह अनित्य है । यह हम प्रत्यक्षतः जानते हैं । शब्द के उत्पन्न होने का या शब्द के विनष्ट होने का व्यवहार प्रत्यक्ष ही है । प्रश्न किया जा सकता है कि शब्द का विनाश तो प्रध्वंसाभाव हुआ उसका प्रत्यक्ष कैसे होगा ? अभाव का प्रत्यक्ष करने के लिए तो उसके बहुत आवश्यक है और शब्दाभाव के आश्रय आकाश का प्रत्यक्ष होता नहीं, क्योंकि वह अतीन्द्रिय है | इसका क्या उत्तर है ? वायु यद्यपि अचाक्षुष है किन्तु वायु में जो रूपाभाव है। उसे तो चाक्षुष ( चक्षुर्ग्राह्य ) ही देखते हैं । अतः यह कोई नियम नहीं कि अभाव का प्रत्यक्ष करने के लिए अभावाश्रय का प्रत्यक्ष करना जरूरी है । फल यह हुआ कि शब्द की उत्पत्ति और विनाश के आधार पर शब्द को अनित्य सिद्ध करते हैं । ] आश्रय का प्रत्यक्ष करना सोऽपि विरुद्धधर्मसंसर्गस्योपाधिकत्वोपपादनन्यायेन दत्त रक्तबलिवेतालसमः । यो हि नित्यत्वे सर्वदोपलब्ध्य नुपलब्धिप्रसङ्गो न्यायभूषणकारोक्तः, सोऽपि ध्वनिसंस्कृतस्योपलम्भाभ्युपगमात्प्रतिक्षिप्तः । यत्तु युगपदिन्द्रियसम्बन्धित्वेन प्रतिनियतसंस्कारक संस्कार्यत्वाभावानुमानं तदात्मन्यैकान्तिकमित्यलमतिकलहेन । ततश्च वेदस्यापौरुषेयतया निरस्तसमस्तशङ्काकलङ्काङ्कुरत्वेन स्वतः सिद्धं धर्मे प्रामाण्यमिति सुस्थितम् । शब्द में परस्पर विरुद्ध धर्मो ( उत्पत्ति और विनाश ) का संसर्ग होना उपाधि पर निर्भर करता है ऐसा सिद्ध कर सकते हैं, अतः उदयन उस वेताल की तरह सन्तुष्ट हो जायँगे जो रक्त की बलि देखकर प्रसन्न हो जाता है । [ शब्द में जो व्यंजक ध्वनि है वह उपाधि के रूप में है जिस पर तारत्व, मन्दत्व आदि विरुद्ध धर्म प्रतिभासित होते हैं-भले ही ये धर्म शब्द में वस्तुतः नहीं हैं । उसी प्रकार उत्पत्ति और विनाश भी उस पर वैसे ही प्रतिभाषित होते हैं । 'कोलाहल समाप्त हुआ', 'शब्द उत्पन्न हुआ' इन वाक्यों के व्यवहार इसी आधार पर होते हैं । इन वाक्यों के सिद्ध करने की जो हमारी विधि है, उससे उदयन सन्तुष्ट हो जायेंगे । वे शब्द की नित्यता का खण्डन करने को आगे नहीं बढ़ेंगे । ] न्यायभूषण के रचयिता ( भासर्वज्ञ, समय - ९२५ ई० ) ने जो यह कहा है कि शब्द को नित्य मानने पर, या तो सदा सभी शब्दों की उपलब्धि होगी या सदा अनुपलब्धि ही रहेगी; नाना प्रकार के नित्य शब्द यदि प्रत्येक को व्याप्त करते हैं तो व्यंजक से सभी शब्दों की उपलब्धि होगी और यदि व्याप्त नहीं करते हैं तो व्यंजक ध्वनि रहने पर भी शब्द की उपलब्धि नहीं हो सकेगी ) यह भी खण्डित हो गया है, क्योंकि ध्वनि से जिसका जहाँ संस्कार हो जाता है वहीं उसी की उपलब्धि होती है [ सभी शब्दों की सर्वत्र उपलब्धि या अनुपलब्धि नहीं हो सकती । ]
SR No.091020
Book TitleSarva Darshan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmashankar Sharma
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size38 MB
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