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सर्वदर्शनसंग्रहेकार्य हैं इसलिए किसी बुद्धियुक्त कर्ता ने इनका निर्माण किया है, ऐसा अनुमान होता हैइसी अनुमान के बल से परमेश्वर की प्रसिद्धि की बात सिद्ध हो जाती है। [ कर्ता वह है जो इच्छा और प्रयत्न का आधार हो-'चिकीर्षाप्रयत्नाधारत्वं कृर्तृत्वम्' । कार्य के पूर्व उसकी सत्ता अवश्य होगी और चूंकि कर्ता इच्छा से युक्त होता है अतः इसमें बुद्धि का होना अनिवार्य है । संसाररूपी विराट कार्य के लिए तदनुरूप कर्ता होना चाहिए जो और कोई नहीं, परमेश्वर ही है । नैयायिकों के द्वारा भी ईश्वर की सिद्धि के लिए यही तर्क प्रस्तुत किया जाता है । देखिए--मंगलाचरणश्लोक-१ ( सर्वदर्शनसंग्रह ) ।
( २ क. ईश्वर को कर्ता मानने में आपत्ति और समाधान ) ननु देहस्यैव तावत्कार्यत्वमसिद्धम् । नहि क्वचित्केनचित् कदाचित् देहः क्रियमाणो इष्टचरः। सत्यम्, तथापि न केनचित् क्रियमाणत्वं देहस्य इष्टमिति कर्तृदर्शनापह्नवो न युज्यते। तस्यानुमेयत्वेनाप्युपपत्तेः ।
तथा हि-देहादिकं कार्य भवितुमर्हति संनिवेशविशिष्टत्वात् विनश्वरत्वाडा घटादिवत् । तेन च कार्यत्वेन बुद्धिमत्पूर्वकत्वमनुमातुं सुकरमेव ।
[ पूर्व पतियों का तर्क है कि ] 'देह कार्य है' यही वाक्य पहले असिद्ध है । कारण यह है कि कहीं पर किसी ने, कभी भी देह को उत्पन्न होते हुए नहीं देखा । हम ( शैव ) इसे मानते हैं, फिर भी 'किसी ने देह को उत्पन्न होते हुए नहीं देखा' इस आधार पर कर्ता की सता को अस्वीकार करना ठीक नहीं है। किसी कर्ता का होना अनुमान से भी तो सिद्ध हो सकता है [ भले ही प्रत्यक्ष प्रमाण न मिले ] ।
उदाहरण के लिए देखा जाये-देह आदि कार्य हो सकते हैं, क्योंकि अवयवरचना से ये विशिट होते हैं या नश्वर हैं, जैसे घटादि ( कार्य ) हैं। जब इन्हें कार्य मान लेंगे तो फिर किमी वद्धिमान् पुरुष की रचना मानना और आसान ही है।
विमतं सकर्तृकं कार्यत्वाद् घटवत् । यदुक्तसाधनं तदुक्तसाध्यं यथार्थादि । न यदेवं न तदेवं यथात्मादि । परमेश्वरानुमानप्रामाण्यसाधनमन्यत्राकारीत्युपरभ्यते। २. अझो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ इति न्यायेन प्राणिकृतकर्मापेक्षया परमेश्वरस्य कर्तृत्वोपपत्तेः ।
विवादग्रस्त वतु ( : नु गुम्नादि पदार्थ, क्योंकि इन्हीं के विषय में मंदेह है कि ये सकर्तृक हैं या काम ) मार्नुक है, क्योंकि यह कार्य है जिस प्रकार घट हुआ करता है । जो पदार्थ उम्त गाधनवाले हैं ( कार्य हैं ), वे उक्त साध्य ( मकर्तृक ) वाले हैं जो अर्थ ( घट, गट ) आदि । जी उग प्रकार का नहीं (जो सकर्डक नहीं ) वह वैसा नहीं ( वह कार्य नही । जैग आल्मा आदि। [ गहाँ पर साधणमाधव की शैली संक्षेपीकरण की चरम